(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
१५०२, जोन्स स्ट्रीट,
सैन फ्रांसिस्को,
४ मार्च, १९००
प्रिय धीरा माता,
एक माह से मुझे आपका कुछ भी समाचार प्राप्त नहीं हुआ है। मैं सैन फ्रांसिस्को
में हैं। मेरे लेखों ने लोगों के मन को पहले ही से प्रस्तुत कर रखा था, अब वे
दल बाँधकर आ रहे हैं; किंतु जिस समय रुपये का प्रश्न उठेगा, तब देखना है कि
लोगों में उत्साह कितना रहता है !
श्रद्धेय बेंजमिन मिल्स ने ओकलैंड में मुझे बुलाया था तथा मेरे, वक्तव्य के
प्रचारार्थ अधिक संख्या में लोगों को एकत्र किया था। वे सपत्नीक मेरे ग्रंथों
को पढ़ते हैं तथा सदा से ही मेरे समाचारादि लेते रहे हैं।
कुमारी थर्सनी का भेजा हुआ परिचय-पत्र मैंने श्रीमती हर्ट को भेज दिया था।
आगामी रविवार के दिन अपनी संगीत-चर्चा में उन्होंने मुझे आमन्त्रित किया है।
मेरा स्वास्थ्य प्राय: एक ही प्रकार है--कोई खारा परिवर्तन मुझे दिखायी नहीं
दे रहा है। संभवतः स्वास्थ्य की उन्नति ही हो रही है--किंतु उसकी प्रगति बाहर
से दिखायी नहीं देती है। मैं ऐसे ऊँचे स्वर से भाषण दे सकता हूँ कि जिससे
३,००० श्रोता मेरे व्याख्यान को सुन सकें; ओकलैंड में मुझे दो बार ऐसा करना
पड़ा था। दो घंटे तक भाषण देने के बाद भी मुझे नींद अच्छी तरह से आती है।
मुझे पता चला है कि निवेदिता आपके साथ है। आप कब फ्रांस जा रही हैं ? अप्रैल
में इस स्थान को छोड़कर मैं पूर्व की ओर रवाना हो रहा हूँ। यदि संभव हो सका तो
मई में इंग्लैंड जाने की मेरी विशेष इच्छा है। एक बार इंग्लैंड में प्रयत्न
किए बिना मेरे लिए स्वदेश लौटना ठीक न होगा।
ब्रह्मानन्द तथा सारदानन्द के पास से मुझे एक अच्छा पत्र प्राप्त हुआ है। वे
सब कुशलपूर्वक हैं। वे नगरपालिका को उसकी गलतफहमी समझाने के लिए प्रयत्नशील
हैं। इससे मुझे खुशी है। इस मायिक संसार में द्वेष करना उचित नहीं है; किंतु
'बिना काटे फुफकारने में कोई दोष नहीं है' इतना ही पर्याप्त है।
इसमें संदेह नहीं कि सब कुछ ठीक हो जाएगा--और यदि ऐसा न हो, तो भी अच्छा है।
श्रीमती सेवियर का भी एक अच्छा पत्र आया है। वे लोग पहाड़ पर आनंदपूर्वक हैं।
श्रीमती वघान् कैसी हैं ? . . . तुरीयानन्द कैसा है ?
आप मेरा असीम स्नेह तथा कृतज्ञता ग्रहण करें।
सतत आपका,
विवेकानन्द
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
सैनफ्रांसिस्को,
४ मार्च, १९००
प्रिय निवेदिता,
कर्म में मेरी आकांक्षा नहीं है--विश्राम एवं शांति के लिए मैं लालायित हूँ।
स्थान और काल का तत्त्व मुझसे यद्यपि छिपा हुआ नहीं है, फिर भी मेरा भाग्य तथा
कर्मफल मुझे निरंतर कर्म की ही ओर ले जा रहा है ! हम मानो गायों के झुंड की
तरह कसाईखाने की ओर बढ़ रहे हैं; और जैसे बेंत के इशारे पर चलने वाली गाय
रास्ते के किनारे पर लगी हुई घास से एकाध बार अपना मुँह भर लेती है, हमारी दशा
भी ठीक उसी प्रकार की है। हमारे कर्म अथवा भय का यही स्वरूप है--भय ही दुःख,
रोग आदि का मूल है। विभ्रांत तथा भयभीत होकर ही हम दूसरों को हानि पहुँचाते
हैं। चोट पहुँचाने से डरकर हम और अधिक चोट करते हैं। पाप से बचने के लिए विशेष
आग्रहशोल होकर हम पाप के ही मुंह में जा गिरते हैं।
हम अपने चारों ओर न जाने कितना व्यर्थ कूड़े का ढेर लगाते हैं। इससे हमारा कोई
लाभ नहीं होता; किंतु जिस वस्तु को हम त्यागना चाहते हैं, उसकी ओर--उस दुःख की
ओर ही वह हमें ले जाता है।. . .
अहा, यदि एकदम निडर, साहसी तथा बेपरवाह बनना संभव होता।. . .
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
१५०२, जोन्स स्ट्रीट,
सैनफ्रान्सिस्को,
७ मार्च, १९००
प्रिय 'जो',
श्रीमती बुल के पत्र से विदित हुआ कि तुम केम्ब्रिज में हो। हेलेन के पत्र से
यह भी मालूम हुआ कि तुमको जो कहानियाँ भेजी गई थीं, वे तुम्हें प्राप्त नहीं
हई। यह बहुत ही अफसोस की बात है। मार्गरेट के समीप उनकी प्रतिलिपियाँ हैं, वह
तुम्हें दे सकती है। मेरा स्वास्थ्य साधारणतया ठीक ही है। धन का अभाव, साथ ही
जी-जान से परिश्रम, फिर कुछ परिणाम नहीं ! लॉस एंजिलिस से भी दशा खराब है !
यदि कुछ देना न पड़े तो दल बाँधकर लोग भाषण सुनने आते हैं, किंतु यदि कुछ गाँठ
से निकालने का प्रश्न उपस्थित हो, तो नहीं आते; ऐसी स्थिति है !
दो-चार दिन से मेरा गरीर ठीक नहीं है, इसलिए कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मुझे यह
प्रतीत होता है कि प्रतिदिन रात्रि में भाषण देने के फलस्वरूप ही ऐसा हआ है।
मुझे आशा है कि ओकलैंड के कार्य के फलस्वरूप कम से कम न्यूयार्क तक वापस जाने
का खर्च में संग्रह कर सकूँगा; और फिर न्यूयार्क पहुँचकर भारत लौटने का
मार्ग-व्यय मैं एकत्र करूँगा। यदि कुछ महीने लंदन रहने का खर्च मैं संग्रह कर
सका, तो लंदन भी जा सकता हूँ। हमारे जनरल का पता तो तुम मुझे भेज देना। आजकल
नाम भी प्रायः मुझे याद नहीं रहता है।
अब मैं विदा चाहता हूँ। पेरिस में तुमसे भेंट हो सकती है और नहीं भी। श्री
रामकृष्ण देव तुम्हें आशीर्वाद प्रदान करें। जितना मैं सहायता पाने के योग्य
हूँ, उससे कहीं अधिक तुमने मेरी सहायता की है। मेरा असीम स्नेह तथा कृतज्ञता
जानना।
विवेकानन्द
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
१५०२, जोन्स स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
७ मार्च, १९००
प्रिय धीरा माता,
आपका पत्र, जिसके साथ केवल सारदानन्द का एक पत्र तथा हिसाब-किताब का कागज़ भी
संलग्न था, पहुँच गया। मेरे भारत छोड़ने के समय से लेकर अब तक के समाचारों से
मैं आश्वस्त हो गया। हिसाब-किताब एवं ३०,००० रु० के खर्च के संबंध में आप जैसा
उचित समझें वैसा करें।
प्रबंध का भार मैंने आपके ऊपर छोड़ दिया है, गुरुदेव सबसे अच्छा मार्ग
सुझायेंगे। ३५,००० रुपये हैं। जिसमें ५,००० रु० गंगा-तट पर कुटी-निर्माण के
लिए है, और सारदानन्द को लिखा है कि वह इसे अभी उपयोग में न लावे। मैं ५ हजार
रुपये ले चुका हूँ। अब और अधिक नहीं लूंगा। मैंने इन ५,००० रु० में भारत में
ही २,००० रु० या अधिक वापस कर दिया है परंतु ऐसा जान पड़ता है कि ब्रह्मानन्द
ने ३५,००० रु० को सुरक्षित रख छोड़ने के लिए मेरे २,००० रु० का सहारा लिया;
इसलिए इस आधार पर मैं ५,००० रु० और उन लोगों का ऋणी हूँ। मैंने सोचा था कि मैं
यहाँ कैलिफोर्निया में रुपये एकत्र कर उन लोगों को चुपके से चुकता कर दूँगा।
अब मैं आर्थिक दृष्टि से कैलिफ़ोर्निया में पूर्णतया असफल हो चुका हूँ। यहाँ
की परिस्थिति लॉस एंजिलिस से भी खराब है। लोग व्याख्यान के निःशुल्क होने पर
झुंड के झुंड आते हैं। लेकिन, जब कुछ देना पड़ता है, आने वालों की संख्या
बिल्कुल ही कम हो जाती है। इंग्लैंड में मुझे फिर भी कुछ आशा है। मई तक
इंग्लैंड पहुँच जाना मेरे लिए आवश्यक है। सैनफ्रांसिस्को में व्यर्थ रहकर अपने
स्वास्थ्य को बिगाड़ने से कोई लाभ नहीं। साथ ही, 'जो' के तमाम उत्साहों के
बावजूद, चुंबकीय रोग निवारक (magnetic healer) के द्वारा अब तक वास्तविक रूप
से कोई फायदा नहीं हुआ, सिवाय मेरी छाती पर कुछ लाल धब्बों के, जो मलने के
कारण उत्पन्न हो गए हैं। व्याख्यान मंचों का कार्य मेरे लिए असंभव वस्तु है,
और इस पर जिद करने का मतलब होता है अपने 'अंत' को शीघ्रता से आमंत्रित करना।
यात्रा-खर्च के पूरा होते ही मैं यहाँ से शीघ्र रवाना हो जाऊँगा। मेरे पास ३००
डालर हैं, जिन्हें मैंने लॉसएंजिलिस में उपाजित किया था। मैं आगामी सप्ताह में
यहाँ व्याख्यान दूँगा और फिर व्याख्यान देना बंद कर दूँगा। जहाँ तक रुपये एवं
मठ का प्रश्न है, जितना ही जल्द इनसे मुक्ति मिले, उतना ही अच्छा।
आप जो कुछ भी करने की सलाह दें, मैं करने के लिए तैयार हूँ। आप मेरी वास्तविक
माँ रहीं हैं। मेरे भारी बोझों में से एक बोझ अपने ऊपर ले रखा है-- मेरा
अभिप्राय अपनी गरीब बहन से है! मैं पूर्ण रूप से अपने को संतुष्ट पाता हूँ।
जहाँ तक मेरी अपनी माँ का प्रश्न है, मैं उसके पास लौट रहा हूँ-अपने और उसके
अंतिम दिनों के लिए। मैंने १,००० डालर जो न्यूयार्क में रखे हैं, उससे ९०
महीने आएंगे; फिर उसके लिए थोड़ी सी जमीन खरीद ली है, जिससे ६ रु० प्रति माह
मिल जाएंगे; उसके पुराने मकान से समझिए कि ६ रु० मिल जाएंगे। जिस मकान के
संबंध में मुकदमा चल रहा है, उसको हिसाब में नहीं लेता; क्योंकि अभी तक उस पर
कब्जा नहीं मिला है। मैं, मेरी माँ, मेरी मातामही एवं मेरा भाई आसानी से २०
रु० महीने में गुजारा कर लेंगे। यदि न्यूयार्कवाले १,००० डालर में बिना हाथ
लगाए भारत-यात्रा के लिए खर्च पूरा हो जाए, तो मैं अभी रवाना हो जाऊँगा।
किसी तरह तीन-चार सौ डालर अर्जित कर लूंगा--४०० डालर द्वितीय श्रेणी में
यात्रा करने एवं कुछ सप्ताह लंदन में ठहरने के लिए पर्याप्त है। अपने लिए कुछ
और अधिक करने के लिए मैं आपसे नहीं कहता हूँ; मैं यह नहीं चाहता। आपने जो कुछ
किया है वह बहुत अधिक है--सदैव ही उससे कहीं अधिक, जितने का मैं पात्र था।
श्री रामकृष्ण के कार्य में मेरा जो स्थान था, उसको मैंने आपको समर्पित कर
दिया है। मैं उसके बाहर हूँ। यावज्जीवन मैं अपनी बेचारी माँ के लिए यातना बना
रहा। उसकी सारी जिंदगी एक अविच्छिन्न आपत्ति-स्वरूप रही। अगर संभव हो सका,तो
मेरा यह अंतिम प्रयास होगा कि उसे कुछ सुखी बनाऊँ। मैंने पहले से सुनिश्चित कर
रखा है। मैं 'माँ' की सेवा सारे जीवन करता रहा। अब वह संपन्न हो चुका; अब मैं
उनका काम नहीं कर सकता। उनको अन्य कार्यकर्ता ढूंढ़ने दीजिए--मैं तो हड़ताल कर
रहा हूँ।
आप एक ऐसी मित्र रही हैं, जिसके लिए श्री रामकृष्ण जीवन का लक्ष्य बन गए
हैं--और आपमें मेरी आस्था का यही रहस्य है। दूसरे लोग व्यक्तिगत रूप से मुझसे
स्नेह करते हैं। किंतु वे यह नहीं जानते कि जिस वस्तु के लिए वे मुझसे प्रेम
करते हैं, वह श्री रामकृष्ण हैं; उनके बिना मैं एक निरर्थक स्वार्थपूर्ण
भावनाओं का पिंड हूँ। अस्तु, यह दबाव भीषण है--यह सोचते रहना कि आगे क्या हो
सकता है, यह चाहते रहना कि आगे क्या होना चाहिए। मैं उत्तरदायित्व के योग्य
नहीं हूँ; मुझमें एक अभाव पाया जाता है। मुझे अवश्य ही यह काम छोड़ देना
चाहिए। अगर कार्य में जीवन न हो तो उसे मर जाने दो; अगर यह जीवंत है, तो इसको
मेरे जैसे अयोग्य' कार्यकर्ताओं की आवश्यकता नहीं है।
अब मेरे नाम से सरकारी प्रतिभूतियों (सेक्योरिटी) के रूप में ३०,००० रु० हैं।
अगर इनको अभी बेच दिया जाता है, तो युद्ध के कारण हम लोग बुरी तरह से घाटा
उठायेंगे; फिर वहाँ बेचे बिना वे यहाँ कैसे भेजे जा सकते हैं। उनको वहाँ पर
बेचने के लिए उन पर मेरा हस्ताक्षर करना आवश्यक है। मुझे विदित नहीं है कि यह
सब कैसे सुलझाया जा सकता है। आप जैसा उचित समझें करें। इसी बीच यह आवश्यक है
कि प्रत्येक वस्तु के लिए मैं आपके नाम एक वसीयतनामा लिख दें, उस परिस्थिति के
लिए जब मैं अचानक मर जाऊँ। जितना शीघ्र हो सके वसीयत का एक प्रारूप आप मुझे
भेज दें और मैं इसे सैनफ्रांसिस्को या शिकागो में रजिस्टर्ड करा दंगा; तब मेरी
अंतरात्मा निश्चिन्त हो जाएगी। मैं यहाँ किसी वकील को नहीं जानता, नहीं तो
मैंने इसे पूरा करवा लिया होता; फिर मेरे पास धन भी नहीं है। वसीयत तत्काल हो
जानी चाहिए; न्यास एवं दूसरी वस्तुओं के लिए पर्याप्त समय है।
आपकी चिरसंतान,
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट
सैनफ्रांसिस्को,
१२ मार्च, १९००
प्रिय मेरी,
तुम्हारा क्या हाल-चाल है ? 'मदर' और बहनें कैसी हैं ? शिकागो के क्या हाल-चाल
हैं ? मैं फिस्को में हूँ, और एकाध महीने यहीं रहूँगा। शिकागो के लिए मैं शुरू
अप्रैल में रवाना होऊँगा। अवश्य ही उसके पहले मैं तुम्हें लिखूगा। मेरी बड़ी
इच्छा है कि तुम लोगों के साथ कुछ दिन रहूँ, आदमी काम करते करते थक जाता है।
मेरा स्वास्थ्य बस यूँ ही सा है, किंतु मेरा मन शांत है और पिछले कुछ समय से
ऐसा ही रहा है। मैं सारी चिंताएँ ईश्वर को सौंप देने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं
तो केवल एक कार्यकर्ता हूँ। आज्ञापालन करना और काम करते जाना ही मेरा
जीवन-उद्देश्य है। शेष सब प्रभु के हाथ में है।
"समस्त चिंताएँ और उपाय छोड़कर तुम मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सब भयों से
मुक्त कर दूँगा।"
[1]
मैं इसे कार्यान्वित करने की प्राणपण से चेष्टा कर रहा हूँ। ईश्वर से
प्रार्थना है कि इसमें मैं शीघ्र ही सफल हो सकूँ।
तुम्हारा चिरस्नेही भाई,
विवेकानन्द
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
सैनफ्रांसिस्को,
१२ मार्च,१९००
अभिन्नहृदय,
तुम्हारा एक पत्र पहले मिल चुका है। कल मुझे शरत् का एक पत्र प्राप्त हुआ।
श्री रामकृष्ण-जन्मोत्सव के निमंत्रण-पत्र को देखा। शरत् की वातव्याधि की बात
सुनकर मुझे भय हुआ। दो वर्ष से केवल रोग, शोक, यातनाएँ ही साथी बनी हुई हैं।
शरत् से कहना कि मैं अब अधिक परिश्रम नहीं कर रहा हूँ, किंतु पेट भरने लायक
परिश्रम किए बिना तो भूखा मर जाना पड़ेगा।... चहारदीवारी की आवश्यक व्यवस्था
अब तक दुर्गाप्रसन्न ने कर दी होगी...चहारदीवारी खड़ी करने में तो कोई झंझट
नहीं है। वहाँ पर एक छोटा सा मकान बनवाकर वृद्धा नानी तथा माता की कुछ दिन
सेवा करने का मेरा विचार है। दुष्कर्म किसी का पीछा नहीं छोड़ता, 'माँ' भी
किसी को सज़ा दिए बिना नहीं रहती। मैं यह मानता हूँ कि मेरे कर्म में भूल है।
तुम लोग सभी साधु तथा महापुरुष हो--'माँ' से यह प्रार्थना करना कि अब यह झंझट
मेरे कंधों पर न रहे। अब मैं कुछ शांति चाहता हूँ; कार्य के बोझ को वहन करने
की शक्ति अब मुझमें नहीं है। जितने दिन जीवित रहना है, मैं विश्राम और शांति
चाहता हूँ। जय गुरु, जय गुरु।. . .
व्याख्यान आदि में कुछ भी नहीं रखा है। शांति ! ... वास्तव में मैं विश्राम
चाहता हूँ। इस रोग का नाम Neurosthenia है--यह एक स्नायुरोग है। एक बार इस रोग
का आक्रमण होने पर कुछ वर्षों के लिए यह स्थायी हो जाता है। किंतु दो-चार वर्ष
तक एकदम विश्राम मिलने पर यह दूर हो जाता है। यह देश इस रोग का घर है। यहीं से
यह मेरे कंधों पर सवार हुआ है। किंतु यह खतरनाक नहीं है, अपितु दीर्वजीवी
बनानेवाला है। मेरे लिए चिंतित न होना। मैं धीरे- धीरे पहुँच जाऊँगा। गुरुदेव
का कार्य अग्रसर नहीं हो रहा है--इतना ही दुःख है। उनका कुछ भी कार्य मुझसे
संपन्न न हो सका यही अफसोस है। तुम लोगों को कितनी गालियाँ देता हूँ, बुरा-भला
कहता हूँ मैं महान नराधम हूँ ! आज उनके जन्मदिवस पर तुम लोग अपनी पद-रज मेरे
मस्तक पर दो-मेरे मन की चंचलता दूर हो जाएगी। जय गुरु, जय गुरु, जय गुरु, जय
गुरु। त्वमेव शरणं मम, त्वमेव शरणं मम (तुम्ही मेरी शरण हो, तुम्हीं मेरी शरण हो)।
अब मेरा मन स्थिर है-यह मैं बतलाना चाहता हूँ। यही मेरी सदा की मानसिक भावना
है। इसके अलावा और जो कुछ उपस्थित होता हो, उसे रोग जानना। अब मुझे बिल्कुल
कार्य न देना। मैं अब कुछ काल तक चुपचाप ध्यान-जपादि करना चाहता हूँ-बस इतना
ही। शेष माँ जाने; जय जगदंबे!
विवेकानन्द
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
१२ मार्च,१९००
प्रिय धीरा माता,
केंब्रिज से लिखा हुआ आपका पत्र कल मुझे मिला। अब मेरा एक स्थायी पता हो गया
है--१७१९, टर्क स्ट्रीट, सैनफ्रांसिस्को। मैं आशा करता हूँ कि इस पत्र के जवाब
में दो पंक्ति लिखने का आपको अवकाश मिलेगा।
आपकी भेजी हुई एक पाण्डुलिपि मुझे प्राप्त हुई थी। आपके अभिप्रायानुसार उसे
मैं वापस भेज चुका हूँ। इसके अलावा मेरे समीप और कोई हिसाब नहीं है। सब कुछ
ठीक ही है। लंदन से कुमारी सूटर ने मुझे एक अच्छा पत्र लिखा है। उनको आशा है
कि श्री ट्राईन उनके साथ रात में भोजन करेंगे।
निवेदिता की अर्थ-संग्रह विषयक सफलता के समाचार से मुझे अत्यंत खुशी हुई।
मैंने उसे आपके हाथ सौंप दिया है और मुझे यह निश्चित विश्वास है कि आप उसकी
देखभाल करेंगी। मैं यहाँ पर कुछ एक सप्ताह और हूँ; उसके बाद पूर्व की ओर
जाऊँगा। केवल ठंड कम होने की प्रतीक्षा मैं कर रहा हूँ।
आर्थिक दृष्टि से मुझे यहाँ कुछ भी सफलता प्राप्त नहीं हुई है। फिर भी किसी
प्रकार का अभाव भी नहीं है। अस्तु, यह ठीक है कि आवश्यकतानुसार मेरा कार्य
चलता जा रहा है; और यदि न चले तो किया ही क्या जा सकता है ? मैंने पूर्णतः
आत्मसमर्पण कर दिया है।
मठ से मुझे एक पत्र मिला है। कल उनका उत्सव संपन्न हो चुका है। प्रशांत
महासागर होकर मैं जाना नहीं चाहता। कहाँ जाना है अथवा कब जाना है-- यह मैं
एकबार भी नहीं सोचता। मैं तो पूर्णतया समर्पित हो चुका हूँ--'माँ ही सब कुछ
जानती हैं ! मेरे अंदर एक विराट् परिवर्तन की सूचना दिखायी दे रही है-मेरा मन
शांति से परिपूर्ण होता जा रहा है। मैं जानता हूँ कि 'माँ' ही सब कुछ
उत्तरदायित्व ग्रहण करेंगी। मैं एक संन्यासी के रूप में ही मृत्यु का आलिंगन
करूँगा। आपने मेरे एवं मेरे स्वजनों के हेतु माँ से भी अधिक कार्य किया है। आप
मेरा असीम स्नेह ग्रहण करें, आपका चिर-मंगल हो--यही विवेकानन्द की सतत
प्रार्थना है।
पुनश्च--कृपया श्रीमती लेगेट को यह सूचित करें कि कुछ सप्ताह के लिए मेरा
पता--१७१९, टर्क स्ट्रीट, सैनफ्रांसिस्को होगा |
(श्रीमती एफ० एच० लेगेट को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
१७ मार्च, १९००
प्रिय माँ,
आपका सुंदर पत्र पाकर अत्यंत प्रसन्नता हुई। आप आश्वस्त रहें कि मैं अपने
मित्रों से बराबर संपर्क बनाए हुए हूँ। फिर भी थोड़ा विलंब हो जाने से घबड़ाहट
हो सकती है।
डॉ० हीलर तथा श्रीमती हीलर इस नगर में श्रीमती मेल्टन के घर्षणों से काफी
लाभान्वित होकर वापस लौटे हैं, जैसा कि वे स्वयं घोषित करते हैं। जहाँ तक मेरा
संबंध है, मेरी छाती पर तो कुछ बड़े-बड़े लाल चकत्ते उभर आए हैं। आगे किस विधि
से उन्हें पूरा आराम होता है, यह मैं आपको यथासमय सूचित करूंगा। मेरा तो मामला
ऐसा है कि उसे रास्ते पर आने में समय लगेगा।
आपकी और श्रीमती एडम्स की कृपाओं के लिए मैं अत्यंत कृतज्ञ हूँ। अवश्य ही मैं
शिकागो जाऊँगा और उनसे भेंट करूंगा।
आपके क्या हाल-चाल हैं ? यहाँ मैं 'करो या मरो' वाले सिद्धांत के अनु सार
कार्य कर रहा हूँ और अभी तक तो यह बुरा सिद्ध नहीं हुआ है। तीनों बहनों में से
दूसरी श्रीमती हैन्सबॉरो यहाँ हैं और मेरी सहायता के लिए अनंत परिश्रम कर रही
हैं। ईश्वर उनका कल्याण करे। तीनों बहनें तीन देवदूत हैं, हैं न? ऐसी आत्माओं
का यत्र-तत्र दर्शन इस जीवन की सभी व्यर्थताओं का बदला चुका देता है।
आपके कल्याण की मैं सदैव प्रार्थना करता हूँ। मैं कहता हूँ आप भी तो एक देवदूत
हैं। कुमारी केट को प्यार।
आपका पुत्र,
विवेकानन्द
पुनश्च--'माँ का शिशु' कैसा है ? कुमारी स्पेन्सर का क्या हाल है ? उन्हें
प्यार। आप तो जानती ही हैं कि पत्र-व्यवहार के मामले में मैं कितना खराब हूँ,
पर मेरा हृदय कभी नहीं चूकता। आप कुमारी स्पेन्सर से इतना कह दें।
(श्रीमती एफ़० एच० लेगेट को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
१७ मार्च, १९००
प्रिय माँ,
मुझे 'जो' का एक पत्र मिला था, जिसमें उसने मुझसे काग़ज़ की चार चिटों पर अपना
हस्ताक्षर भेज देने को कहा था ताकि श्री लेगेट मेरी ओर से बैंक में मेरा रुपया
जमा कर सकें। अब शायद मैं समय पर उससे न मिल सकूँ, अतः वे चिटें मैं आपके पास
भेज रहा हूँ।
मेरा स्वास्थ्य सुधर रहा है और कुछ आर्थिक प्रबंध भी मैं कर रहा हूँ। मैं
पूर्णतया संतुष्ट हूँ। मुझे तनिक भी दुःख नहीं है कि अधिक लोगों ने आपके
आह्वान को नहीं सुना। मैं जानता था कि वे नहीं सुनेंगे। पर मैं आपकी सहृदयता
के लिए अनंत रूप से आभारी हूँ। आपका, आपके स्वजनों का सदा-सर्वदा मंगल हो।
मेरी डाक को १२३१, पाईन स्ट्रीट के पते पर होम ऑफ ट्रूथ' के मार्फत भेजना अधिक
अच्छा होगा। यद्यपि मैं इधर-उधर आता-जाता रहा हूँ, पर वह स्थान मेरा स्थायी
आवास है और वहाँ के लोग मेरे प्रति अत्यंत कृपालु हैं।
मुझे बड़ी खुशी है कि अब आप बिल्कुल ठीक हैं। श्रीमती ब्लॉजेट से मुझे सूचना
मिल चुकी है कि श्रीमती मेल्टन ने लॉस एंजिलिस छोड़ दिया है। क्या वे
न्यूयार्क चली गयीं? डॉ० हीलर तथा श्रीमती हीलर परसों सैनफ्रांसिस्को वापस आ
गए। वे स्वयं घोषित करते हैं कि श्रीमती मेल्टन ने उनकी बड़ी सहायता की।
श्रीमती हीलर को आशा है कि थोड़े ही दिन में वे पूर्णतया निरोग हो जायेंगी।
यहाँ और ओकलैंड में मैं कई व्याख्यान दे चुका हूँ। ओकलैंड के व्याख्यानों से
अच्छी आमदनी हो गई। सैनफ्रांसिस्को में पहले सप्ताह तो खास आमदनी नहीं हुई, पर
इस सप्ताह हुई। आशा है अगले सप्ताह भी आमदनी हो जाएगी। श्री लेगेट द्वारा
बेदान्त सोसाइटी के लिए किए गए प्रबंध की बात सुनकर मुझे खुशी हुईं। वे कितने
भले हैं !
सस्नेह आपका,
विवेकानन्द
पुनश्च--क्या आप तुरीयानन्द के विषय में कुछ जानती हैं ? क्या वे बिल्कुल
अच्छे हो गए?
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
२२ मार्च, १९००
प्रिय मेरी,
तुम्हारे पत्र के लिए अनेक धन्यवाद। तुम्हारा कहना सच है कि भारतवासियों के
विषय में सोचने के अलावा भी मुझे सोचने को बहुत कुछ है, पर अपने गुरुदेव के
कार्य को संपादित करने का जो सबको समाहित कर लेनेवाला मेरा जीवन-उद्देश्य है,
उसके सामने इन सबको गौण हो जाना पड़ता है। मैं चाहता हूँ कि यह त्याग सुखकर हो
सके। पर ऐसा नहीं है, और स्वाभाविक है कि इससे मनुष्य कभी कभी कटु हो जाता है,
क्योंकि तुम यह जान लो मेरी कि मैं अभी भी मनुष्य ही हूँ और अपने मनुष्य
स्वभाव को पूरी तरह विस्मृत नहीं कर सका हूँ। मुझे आशा है कि कभी ऐसा कर
सकूँगा। मेरे लिए प्रार्थना करो।
अवश्य ही मेरे प्रति या किसी भी वस्तु के प्रति कुमारी मैक्लिऑड अथवा कुमारी
नोबुल की क्या धारणा है, इसके लिए मैं उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। या ऐसा
हो सकता है ? आलोचना से तो खिन्न होते तुमने मुझे कभी नहीं देखा होगा।
मुझे खुशी है कि एक लंबे समय के लिए तुम यूरोप जा रही हो। खूब लम्बा चक्कर
लगाओ, तुम काफी समय से घर की कबूतरी बनी रही हो।
जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं तो चिरंतन रूप से भ्रमण करते करते थक गया हूँ।
इसीलिए मैं घर वापस जाना और आराम करना चाहता हूँ। मैं अब और काम करना नहीं
चाहता। मेरा मामला किसी विद्वान के अवकाश प्राप्त करने जैसा ही असंभव है। वह
मुझे कभी नहीं मिलता। मैं कामना करता हूँ कि वह मुझे मिले, विशेषकर अब जब कि
मैं टूट चुका और काम करते करते थक चुका हूँ। जब भी मुझे श्रीमती सेवियर का
उनके हिमालय स्थित आवास से पत्र मिलता है, मेरी हिमालय को उड़ जाने की इच्छा
होने लगती है। मैं सचमुच इस मंच कार्य और शाश्वत धुमक्कड़ी तथा नए लोगों से
मिलने एवं व्याख्यानबाज़ी से तंग आ चुका हूँ।
शिकागो में कक्षा चलाने की झंझट में पड़ने की तुम्हें जरूरत नहीं। मैं
फ्रिस्को में पैसा पैदा कर रहा हूँ और शीघ्र ही घर वापस जाने के लिए काफी पैदा
कर लूँगा।
तुम्हारा और बहनों का क्या हाल है ? मैं करीब अप्रैल के प्रारंभ में शिकागो
आने की आशा करता हूँ।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
सैनफ्रांसिस्को,
२५ मार्च, १९००
प्रिय निवेदिता,
मैं पहले से बहुत कुछ स्वस्थ हूँ एवं क्रमशः मुझे अधिक शक्ति मिल रही है। अब
कभी कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत शीघ्र ही मैं रोगमुक्त हो जाऊँगा, गत
दो वर्षों के कष्ट ने मुझे पर्याप्त शिक्षा प्रदान की है। रोग तथा दुर्भाग्य
का फल हमारे लिए कल्याणप्रद ही होता है, यद्यपि उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि
मानो हम अथाह पानी में डूब रहे हैं।
मैं मानो सीमाहीन नील आकाश हूँ, कभी कभी बादलों से घिर जाने पर भी सदा के लिए
मैं वही असीम नील ही हूँ।
मेरी तथा प्रत्येक जीव की जो चिरस्थायी प्रकृति है--मैं इस समय उस शाश्वत
शांति के आस्वादन के लिए प्रयत्नशील हूँ। यह हाड़-मांस का पिंजरा तथा सुख-दुःख
के व्यर्थ स्वप्न--इनकी फिर पृथक सत्ता ही क्या है ? मेरा स्वप्न दिनोंदिन दूर
होता जा रहा है। ॐ तत्सत्।
तम्हारा,
विवेकानन्द
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
२८ मार्च, १९००
प्रिय मार्गट,
तुम्हारे कार्य को सफलता देखकर मैं अति आनंदित हूँ। यदि हम लोग लगे रहें, तो
घटनाचक्र का परिवर्तन अवश्य होगा। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि तुम्हें जितने
रुपये की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति यहाँ से अथवा इंग्लैंड से अवश्य होगी।
मैं अत्यंत परिश्रम कर रहा हूँ--और जितना अधिक परिश्रम कर रहा हूँ, उतना ही
स्वस्थ होता जा रहा हूँ। यह निश्चित है कि शरीर अस्वस्थ हो जाने से मेरा बहुत
भला हुआ है। अनासक्ति का यथार्थ तात्पर्य अब मैं ठीक ठीक समझने लगा हूँ और
मुझे आशा है कि शीघ्र ही मैं पूर्णतया अनासक्त बन सकूँगा।
हम अपनी सारी शक्तियों को किसी एक विषय की ओर लगा देने के फलस्वरूप उसमें
आसक्त हो जाते हैं; तथा उसकी और भी एक दिशा है, जो नेतिवाचक होने पर भी उसके
सदृश ही कठिन है--उस ओर हम बहुत कम ध्यान देते हैं--वह यह है कि क्षण भर में
किसी विषय से अनासक्त होने की, उससे अपने को पृथक कर लेने की शक्ति। आसक्ति और
अनासक्ति, जब दोनों शक्तियों का पूर्ण विकास होता है, तभी मनुष्य महान एवं
सुखी हो सकता है।
श्रीमती लेगेट के १,००० डालर दान के समाचार से मुझे नितांत खुशी हुई। धैर्य
रखो, उनके द्वारा जो कार्य संपन्न होने वाला है, उसीका अब विकास हो रहा है।
चाहे उन्हें यह विदित हो अथवा नहीं, श्री रामकृष्ण देव के कार्य में उन्हें एक
महान अभिनय करना पड़ेगा।
तुमने अध्यापक गेडिस के बारे में जो लिखा है, उसे पढ़कर मुझे खुशी हुई। 'जो'
ने भी एक अप्रत्यक्षदर्शी (clairvoyant) व्यक्ति के संबंध में एक मजेदार विवरण
भेजा है।
सभी विषय अब हमारे लिए अनुकूल होते जा रहे हैं। मैं जो धन इकट्ठा कर रहा हूँ,
वह यथेष्ट नहीं है, फिर भी वर्तमान कार्य के लिए कम नहीं है।
मैं समझता हूँ कि यह पत्र तुम्हें शिकागो में प्राप्त होगा। 'जो' तथा श्रीमती
बुल इस बीच में निश्चय ही चल चुकी होंगी। 'जो' के पत्र तथा 'तार' में उनके
आगमन के बारे में इतने विरोधी समाचार थे कि उन्हें पढ़कर मैं चिंतित हो उठा
था। सबसे अंतिम समाचार है कि वे अब तक 'ट्यूटानिक' जहाज में सवार हो चुकी
होंगी। कुमारी सूटर के स्विट्जरलैंड के एक मित्र मैक्स गेजिक का एक अच्छा सा
पत्र मुझे मिला है। कुमारी सूटर ने भी मेरे प्रति अपना आंतरिक स्नेह ज्ञापन
किया है और उन लोगों ने यह जानना चाहा है कि मैं कब इंग्लैंड रवाना हो रहा
हूँ। उन लोगों ने लिखा है कि वहाँ पर अनेक व्यक्ति इस विषय में पूछ-ताछ कर रहे
हैं।
सभी वस्तुओं को चक्कर लगाकर वापस आना होगा। बीज से वृक्ष होने के लिए उसे जमीन
के नीचे कुछ दिन तक सड़ना पड़ेगा। गत दो वर्षों का समय इसी प्रकार धरती के
अंदर सड़ने का समय था। मृत्यु के कराल गाल में फंसकर जब कभी भी मैं छटपटाता,
तभी उसके दूसरे क्षण ही समग्र जीवन मानो प्रबल रूप से स्पंदित हो उठता। इस
प्रकार की एक घटना ने मुझे श्री रामकृष्ण देव के समीप आकृष्ट किया और एक अन्य
घटना के द्वारा मुझे संयुक्त राज्य, अमेरिका में आना पड़ा। अन्यान्य घटनाओं
में यही सबसे अधिक उल्लेखनीय है। वह अब समाप्त हो चुकी है--अब मैं इतना निश्चल
तथा शांत बन चुका हूँ कि कभी-कभी मुझे स्वयं ही आश्चर्य होने लगता है।
अब मैं सुबह-शाम पर्याप्त परिश्रम करता हूँ। जब जैसी इच्छा होती है भोजन करता
हूं, रात के बारह बजे सोता हूँ और नींद भी खूब आती है। पहले कभी इस प्रकार
सोने की शक्ति मुझमें नहीं थी। तुम मेरा आशीर्वाद तथा स्नेह जानना।
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
२८ मार्च, १९००
प्रिय मेरी,
यह पत्र तुम्हें यह जताने के लिए लिख रहा हूँ कि 'मैं बहुत खुश हूँ।' यह नहीं
कि मैं किसी धूमिल आशावाद से ग्रस्त होता जा रहा हूँ, बल्कि दुःख झेलने की
मेरी क्षमता बढ़ती जा रही है। मैं इस संसार के सुख-दुःख रूपी महामारी की
दुर्गंध से ऊपर उटता जा रहा हूँ; उनका अर्थ मेरे लिए मिटता जा रहा है। यह
संसार एक स्वप्न है। यहाँ किसी के हँसने-रोने का कोई मूल्य नहीं। वह केवल
स्वप्न है, और देर या सबेर अवश्य टूटेगा। वहाँ तुम लोगों के क्या हाल-चाल हैं
? हैरियट पेरिस आनंद मनाने जा रही है ! वहाँ मेरी उससे अवश्य भेंट होगी। मैं
एक फ्रेंच डिक्शनरी कंठाग्र कर रहा हूँ। मैं कुछ धन भी अर्जित कर रहा हूँ।
सुबह-शाम कठिन परिश्रम करता हूँ, फिर भी अच्छा हूँ। नींद अच्छी आती है, हाजमा
भी अच्छा है। पूर्ण अनियमितता है।
तुम पूर्व की ओर जा रही हो। आशा है, अप्रैल के अंत में मैं शिकागो आऊँगा। यदि
न आ सका, तो पूर्व में तुम्हारे जाने के पहले तुमसे जरूर मिलूंगा।
मैक्किंडली परिवार की लड़कियाँ क्या कर रही हैं ? चकोतरों की पुष्टई खा रही
हैं और मोटी हो रही हैं ? चलते रहो, जिंदगी तो एक स्वप्न है। क्या तुम इससे
खुश नहीं हो? बाप रे ! वे शाश्वत स्वर्ग चाहते हैं। ईश्वर को धन्यवाद है कि
सिवा उसके और कुछ भी शाश्वत नहीं है। मुझे विश्वास है उसे केवल ईश्वर ही सहन
कर सकता है। शाश्वतता की यह बकवाद !
सफलता धीरे-धीरे मुझे मिलनी शुरू हो चुकी है, वह अभी और भी अधिक मिलेगी। फिर
भी चुपचाप रहूँगा। अभी तुम्हें सफलता नहीं मिल रही है, इसका मुझे दुःख है,
मतलब मैं दु:खित अनुभव करने का प्रयत्न कर रहा हूँ, क्योंकि मैं किसी भी वस्तु
के लिए अब और दुःखी नहीं हो सकता। मैं उस शांति को प्राप्त कर रहा हूँ, जो
बुद्धि के परे है, जो न सुख है न दुःख, बल्कि इन दोनों से ही ऊपर है। 'मदर' से
यह कह देना। पिछले दो वर्षों में मैं जिस शारीरिक और मानसिक मृत्यु की घाटी से
गुज़रा हूँ, उसी ने मुझे यह प्राप्त करने में सहायता दी है। अब मैं उस
'शांति', उस शाश्वत मौन के निकट आ रहा हूँ। अब मैं जो चीज जिस रूप में है, उसे
उसी रूप में देखना चाहता हूँ, उस शांति के भीतर, अपने परम रूप में। 'जो अपने
भीतर ही आनंद पाता है, जो अपने भीतर ही इच्छाओं को देखता है, वस्तुतः उसीने
अपने जीवन का पाठ पढ़ा है।' यही है वह महान पाठ जिसे अनेक जन्मों,
स्वर्गो-नरकों में से होकर हमें सीखना है--कि अपनी आत्मा के परे कुछ भी याचना
करने, इच्छा करने के लिए नहीं है। जो सबसे बड़ी वस्तु मैं प्राप्त कर सकता
हूँ, वह आत्मा है।' 'मैं मुक्त हूँ', अतः सुखी होने के लिए मुझे अन्य किसी
वस्तु की आवश्यकता नहीं। 'अनंत काल से अकेला, चूँकि मैं मुक्त था, अतः मुक्त
हूँ और सदा रहूँगा भी।' यह वेदांत मत है। इतने समय तक मैं सिद्धांत का प्रचार
करता रहा, लेकिन ओह ! कितने आनंद का विषय है प्यारी बहन मेरी, कि इसे मैं अब
प्रत्येक दिन अनुभव कर रहा हूँ। हाँ, मैं अनुभव कर रहा हूँ। 'मैं मुक्त हूँ।'
'एकम्, एकम्, एकमेवाद्वितीयम्।'
सच्चिदानन्द स्वरूप,
विवेकानन्द
पुनश्च--अब मैं सच्चा विवेकानन्द बनने जा रहा हूँ। कभी तुमने बुराई का आनंद
लिया है ? हा! हा! ओ भोली लड़की! तू क्या कहती है कि सब कुछ अच्छा है! बकवास !
कुछ अच्छा है, कुछ बुरा है। मैं अच्छे का भी आनंद लेता हूँ और बुरे का भी। मैं
ही जीसस था और मैं ही जूडास इस्केरियट। दोनों ही मेरी लीला हैं, दोनों ही मेरे
विनोद। 'जब तक द्वैतभाव है, भय से तुझे मुक्ति नहीं मिलेगी।' शुतुरमुर्गवाला
तरीका?--बालू में अपना सिर छिपा लेना और सोचना कि तुम्हें कोई देख नहीं रहा है
! सब अच्छा ही अच्छा है ! साहसी बनो और जो भी आए उसका सामना करो। अच्छा आए,
बुरा आए, दोनों का स्वागत है, दोनों ही मेरे लिए खेल हैं। ऐसी कोई भलाई नहीं,
जिसे मैं प्राप्त करना चाहूँ, ऐसा कोई आदर्श नहीं, जिसे पकड़ लेना चाहूँ, ऐसी
कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं जिसे पूरा करना चाहूँ। मैं हीरों की खान हूँ, अच्छे
और बुरे की कंकड़ियों से खेल रहा हूँ। बुराई, तुम्हारे लिए अच्छा है कि मेरे
पास आओ; अच्छाई, तुम्हारे लिए भी अच्छा है कि मेरे पास आओ। यदि ब्रह्मांड मेरे
कान के पास भी भहराकर गिरता है, तो इससे मुझे क्या? मैं वह शांति हूँ, जो
बुद्धि के परे है। बुद्धि तो केवल हमें अच्छे और बुरे का ज्ञान देती है। मैं
उससे परे हूँ, मैं शांति हूँ।
वि.
(स्वामी तुरीयानन्द को लिखित)
सैनफ्रांसिस्को,
मार्च, १९००
प्रिय हरिभाई,
अभी ही मुझे श्रीमती बनर्जी से बिल्टी मिली है। उन्होंने कुछ दाल, चावल भेजे
हैं। मैं बिल्टी तुम्हें भेज रहा हूँ। उसे कुमारी वाल्डो को दे देना; जब वे
चीजें आ जाएगी, तब वे लेती आयेंगी।
अगले हफ्ते यह स्थान छोड़कर मैं शिकागो जा रहा हूँ। वहाँ से फिर मैं न्यूयार्क
जाऊँगा। मेरा काम किसी प्रकार चल रहा है। . . . इस समय तुम कहाँ रह रहे हो?
क्या कर रहे हो?
सस्नेह तुम्हारा, विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
३० मार्च, १९००
प्रिय 'जो',
पुस्तकें शीघ्र भेजने के लिए तुम्हें अनेक धन्यवाद। मुझे विश्वास है कि ये
शीघ्र ही बिक जाएंगी। मालूम होता है, अपनी योजनाएँ बदलने में तुम मुझसे भी गई
बीती हो। अभी तक 'प्रबुद्ध भारत' क्यों नहीं आया, यह मैं नहीं समझ पा रहा हूँ।
मुझे डर है कि मेरी डाक के पत्रादि कहीं इधर-उधर चक्कर खा रहे होंगे।
मैं खूब परिश्रम कर रहा हूँ, कुछ धन भी एकत्र कर रहा हूँ और मेरा स्वास्थ्य भी
पहले से ठीक है। सुबह से लेकर शाम तक परिश्रम करना; तदुपरान्त भरपेट भोजन के
बाद रात के १२ बजे बिस्तर का आश्रय लेना--और समूचा रास्ता पैदल चलकर शहर में
घूम आना एवं साथ ही साथ स्वास्थ्य की उन्नति !
श्रीमती मेल्टन तो फिर वहीं हैं। उनसे मेरा स्नेह कहना--कहोगी न ? तुरीयानन्द
का पैर क्या अभी तक ठीक नहीं हुआ है ?
श्रीमती बुल की इच्छानुसार मैंने निवेदिता के पत्र उन्हें भेज दिए हैं।
श्रीमती लेगेट ने निवेदिता को कुछ दान दिया है, यह जानकर मुझे अत्यंत खुशी
हुई। जैसे भी हो, सभी कार्यों में हमें सुविधा अवश्य प्राप्त होगी और ऐसा होना
अवश्यंभावी है; क्योंकि कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है।
यदि सुविधा हुई तो दो-एक सप्ताह और यहाँ पर रहने का विचार है; बाद में
'स्टॉकटन' नामक एक समीपवर्ती स्थान में जाना है। उसके बाद का मुझे पता नहीं
है। चाहे असुविधा भले ही हो, फिर भी दिन किसी प्रकार से कट रहे हैं। मैं पूर्ण
शांति में हूँ, कोई झंझट नहीं है। और कामकाज जैसे चलता रहता है, वैसा ही चल
रहा है। मेरा स्नेह जानना।
पुनश्च--कुमारी वाल्डो 'कर्मयोग' के परिवर्धन आदि सहित संपादन का उत्तरदायित्व
संभालने के योग्य हैं। आदि।
वि०
(स्वामी तुरियानन्द को लिखित)
भाई हरि,
तुम्हारे पाँव की हड्डी जुड़ गई है, यह जानकर खुशी हुई एवं तुम अच्छी तरह से
कार्य कर रहे हो, यह समाचार भी मुझे मिला है। . . . मेरा शरीर ठीक ही चल रहा
है। असली बात यह है कि शरीर की ओर अधिक ध्यान देने से ही रोग दिखायी देता है।
मैं स्वयं रसोई बना रहा हूँ, मनचाहा भोजन कर रहा हूँ, दिन-रात परिश्रम कर रहा
हूँ और ठीक हूँ; नींद की भी कोई शिकायत नहीं है, पर्याप्त मात्रा में नींद आती
है।
एक माह के अंदर मैं न्यूयार्क जा रहा हूँ। सारदा की पत्रिका क्या बंद हो चुकी
है ? मुझे तो उसकी प्रतियाँ नहीं मिल रही हैं। Awakened (प्रबुद्ध भारत) भी
क्या सो गया है ! मुझे तो मिल नहीं रहा है। अस्तु, देश में प्लेग फैल रहा है,
पता नहीं कि कौन जीवित है और कौन नहीं। राम की माया है !! सुनो, अच्' का आज एक
पत्र आया है। वह शिकार राज्य के रामगढ़ कस्बे में छिपा हुआ था। किसी ने कहा है
कि विवेकानन्द मर चुका है। इसलिए उसने मुझे पत्र लिखा है !! आज उसे जवाब भेज
रहा हूँ।
यहाँ सब कुछ ठीक है। अपना तथा उसका कुशल समाचार लिखना। इति।
दास,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
कैलिफ़ोर्निया,
अप्रैल, १९००
प्रिय 'जो',
तुम्हारे फ्रांस जाने के पूर्व तुमसे एक बात कहनी है। क्या तुम इंग्लैंड होते
हुए वहाँ जा रही हो? मुझे श्रीमती सेवियर का एक सुंदर सा पत्र मिला था, जिससे
मुझे पता चला कि कुमारी मूलर ने काली को, जो कि उनके साथ दार्जिलिंग में रह
चुका था, बिना कुछ और लिखे मात्र एक अखबार भेजा है।
कांग्रीव उनके भतीजे का नाम है और वह ट्रांसवाल के युद्ध में है। यही कारण है
कि उन्होंने अखबार की उन पंक्तियों को रेखांकित कर दिया था, यह दिखाने के लिए
कि उनका भाई ट्रांसवाल में बोअरों से लड़ रहा है। बस। जितना कुछ मैं पहले समझा
था, उससे अधिक कुछ और नहीं समझ सका हूँ।
शारीरिक दृष्टि से लॉसएंजिलिस की अपेक्षा यहाँ मेरी तंदरुस्ती अधिक खराब है,
पर मानसिक दृष्टि से अधिक अच्छा, सशक्त तथा शांत हूँ। आशा है कि यह ऐसा ही
रहेगा।
अपने पत्र के उत्तर में तुम्हारा कोई पत्र मुझे नहीं मिला, हालांकि उसके पाने
की मुझे शीघ्र ही उम्मीद थी।
भारत से आनेवाला मेरा एक पत्र भूल से श्रीमती हीलर के पते पर भेज दिया गया था,
पर अंत में वही सही-सलामत मुझे मिल गया। सारदानन्द के कई सुंदर पत्र मिले, वे
सब वहाँ अच्छा काम कर रहे हैं। लड़के काम में जुट गए हैं। इस तरह तुम देखती हो
न, डाँट-फटकार का एक दूसरा पहलू भी है, वह उकसाकर उनसे काम भी करवाती है।
हम भारतवासी इतने लम्बे समय से परापेक्षी रहे हैं कि मुझे यह कहते हुए दुःख
होता है कि उन्हें कर्मठ बनाने के लिए पर्याप्त भर्त्सना की आवश्यकता है। इस
वर्ष वार्षिकोत्सव का कार्य-भार एक महासुस्त व्यक्ति ने लिया था और उसने उसे
ठीक प्रकार से संपन्न भी कर दिया। वे योजना बनाकर सफलतापूर्वक दुभिक्ष-कार्य
बिना मेरी सहायता के अपने आप कर रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि यह सब मेरी
बराबर भर्त्सना करते रहने का परिणाम है !
वे अपने पाँवों पर खड़े हैं। मैं बहुत खुश हूँ। देखो न 'जो' यह सब जगन्माता ही
कर रही हैं।
मैंने कुमारी थर्सबी का पत्र श्रीमती हीयट के पास भेज दिया। उन्होंने अपने
संगीत के कार्यक्रम का एक निमंत्रण-पत्र मुझे भेजा था। मैं नहीं जा सका। मुझे
बहुत ज़ोर का जुकाम था। बात यहीं खत्म हो गई। एक दूसरी महिला जो ओकलैंड की हैं
और जिनके लिए मेरे पास कुमारी थर्सबी का पत्र था, उन्होंने कोई उत्तर नहीं
दिया। मैं नहीं जानता कि मैं शिकागो जाने भर के लिए फिस्को में काफ़ी पैसा कमा
भी सकूँगा या नहीं! ओकलैंडवाला काम सफल रहा है। ओकलैंड से मुझे सौ डालर
प्राप्त होने की आशा है, और कुछ नहीं। कुल मिलाकर मैं संतुष्ट हूँ। यह अच्छा
ही हुआ कि मैंने कोशिश की थी... यहाँ तक कि उस चुंबकीय रोगनिवारक (magnetic
healer) के पास भी मुझे देने को कुछ नहीं था। खैर, मेरा काम यूँ ही चलता
रहेगा, मुझे इसकी चिंता नहीं कि कैसे?... मैं बड़ी शांति में हूँ। लॉसएंजिलिस
से मुझे सूचना मिली है कि श्रीमती लेगेट की हालत फिर खराब हो गई। मैंने इसकी
सचाई जानने के लिए न्यूयार्क तार भेजा है। उम्मीद है कि जल्दी ही मुझे कोई
उत्तर मिलेगा।
लेगेट-परिवार के देश के दूसरे भाग में चले जाने के बाद, बताओ तुम मेरी डाक का
क्या प्रबंध करोगी? क्या तुम ऐसा प्रबंध कर दोगी कि वह मुझे सही-सलामत मिलती
रहे ?
अब अधिक क्या लिखू; तुम्हारे प्रति मेरे मन में स्नेह और कृतज्ञता है, इसे तुम
जानती ही हो। जितने का मैं पात्र नहीं था, उससे अधिक तुमने मेरे लिए किया। मैं
नहीं जानता कि मैं पेरिस जाऊँगा या नहीं, पर इतना निश्चित है कि मई में मैं
इंग्लैंड अवश्य जाऊँगा। इंग्लैंड में कुछ हफ्ते तक और प्रयत्न किए बिना मैं घर
हरगिज वापस नहीं जाऊँगा। प्यार सहित !
प्रभुपदाश्रित सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च--श्रीमती हैन्सबॉरो तथा श्रीमती अपेनल ने एक महीने के लिए १७१९, टर्क
स्ट्रीट में ही एक फ्लैट ले लिया है। मैं उन्हीं लोगों के साथ हैं और कुछ
हफ्ते तक रहूँगा।
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
१ अप्रैल, १९००
प्रिय धीरा माता,
आपका स्नेह पूर्ण पत्र आज सुबह मुझे प्राप्त हुआ। न्यूयार्क के सभी मित्र
श्रीमती मिल्टन की चिकित्सा से आरोग्य-लाभ कर रहे हैं, यह जानकर मुझे अत्यंत
खुशी हुई। ऐसा मालूम होता है कि लॉसएंजिलिस में उन्हें नितांत विफल होना पड़ा
था, क्योंकि हमने जिन व्यक्तियों को उनसे परिचित कराया था, उन सभी लोगों ने
मुझसे कहा कि मर्दन चिकित्सा से उनकी दशा पहले से भी खराब हो गई। श्रीमती
मिल्टन से मेरा स्नेह कहना। कम से कम उनकी 'मसाज' उस समय मुझे कुछ लाभ
पहुँचाती थी। बेचारा डाक्टर हीलर! हम लोगों ने उसे तत्क्षण ही उसकी पत्नी के
इलाज के लिए लॉसएंजिलिस भेजा था। यदि उस दिन सुबह उसके साथ आपकी भेंट तथा
बातचीत हुई होती, तो बहुत ही अच्छा होता। मर्दन चिकित्सा के बाद ऐसा मालूम
होता है कि श्रीमती हीलर की दशा पहले से भी अधिक खराब हो गई है--उसके शरीर में
केवल हाड़ ही हाड़ रह गए हैं, और डाक्टर हीलर को लॉस एंजिलिस में ५०० डालर
व्यय करना पड़ा है। इससे उनका मन बहुत खराब हो गया है। किंतु मैं 'जो' को ये
सारी बातें लिखना नहीं चाहता हूँ। उसके द्वारा गरीब रोगियों की इतनी सहायता हो
रही है, इसी कल्पना में वह मस्त है। किंतु ओह ! यदि वह कदाचित् लासएंजिलिस के
लोगों तथा उस वृद्ध डाक्टर हीलर के अभिमत सुनती, तो उसे उस पुरानी बात का मर्म
विदित होता कि किसी के लिए दवा बतलाना उचित नहीं है। यहाँ से डाक्टर हीलर को
लॉसएंजिलिस भेजनेवालों में मैं नहीं था, मुझे इसकी खुशी है। 'जो' ने मुझे लिखा
है कि उसके समीप से रोग के इलाज का समाचार पाते ही डाक्टर हीलर अत्यंत आग्रह
के साथ लॉसएंजिलिस जाने के लिए तैयार हो उठे थे। वह वृद्ध महोदय मेरी कोठरी
में जिस प्रकार कूदते डोल रहे थे, वह दृश्य भी 'जो' को देखना चाहिए था! ५००
डालर खर्च करना उस वृद्ध के लिए अधिक था! वे जर्मन हैं। वे कूदते रहे तथा अपने
जेब में थप्पड़ जमाते हुए यह कहते रहे--'यदि इस प्रकार के इलाज की बेवकूफी में
मैं न फंसता, तो ५०० डालर आपको भी तो प्राप्त हो सकते थे।' इनके अलावा और भी
गरीब रोगी हैं--जिनको मर्दन के लिए कभी- कभी प्रति व्यक्ति ३ डालर खर्च करना
पड़ा है और अभी तक 'जो' मेरी तारीफ़ ही कर रही है। 'जो' से आप ये बातें न
कहें। वह और आप किसी भी व्यक्ति के लिए यथेष्ट अर्थ-व्यय कर सकती हैं, आप लोग
इतनी संपन्न हैं। जर्मन डाक्टर के बारे में भी ऐसा कहा जा सकता है। किंतु
सीधे-साधे बेचारे गरीबों के लिए इस प्रकार की व्यवस्था करना नितांत ही कठिन
है। वृद्ध डाक्टर की अब ऐसी धारणा हो गई है कि कुछ भूत-प्रेत आपस में मिलकर
उसके घर को इस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं ! उन्होंने मुझे अतिथि बनाकर
इसका प्रतिकार तथा अपनी पत्नी को स्वस्थ करना चाहा था, किंतु उन्हें
लॉसएंजिलिस दौड़ना पड़ा; और उसके फलस्वरूप सब कुछ उलट-फेर हो गया। और अभी तक
यद्यपि वे मुझे अतिथिरूप से पाने के लिए विशेष सचेष्ट हैं, किंतु मैं किनारा
काट रहा हूँ--यद्यपि उनसे नहीं, किंतु उनकी पत्नी तथा साली से। उनकी निश्चित
धारणा है कि ये सब भूतों के कांड हैं। थियोसाफी के वे एक सदस्य रह चुके हैं।
कुमारी मैक्लिऑड को लिखकर कहीं से कोई भूत झाड़नेवाले गुणी को बुलाने की मैंने
उन्हें सलाह दी थी, जिससे कि वे अपनी पत्नी के साथ झटपट वहाँ पहुँचकर पुनः ५००
डालर व्यय कर सकें!
दूसरों का भला करना सर्वदा निर्विवाद विषय नहीं है।
मैं अपने बारे में यह कह सकता हूँ कि 'जो' जब तक खर्च करती रहेगी, तब तक मज़ा
लूटने को मैं तैयार हूँ--चाहे वे हड्डी चटकानेवाले हों अथवा मर्दन करने वाले।
किंतु मर्दन-चिकित्सा के लिए लोगों को एकत्र कर इस प्रकार भाग जाना तथा सारी
'प्रशंसा के बोझ को मेरे कंधों पर डालना--ऐसा आचरण 'जो' के लिए उचित नहीं था !
वह और कहीं से किसी को मर्दन-प्रक्रिया के लिए नहीं बुला रही है--इससे मैं खुश
हूँ। अन्यथा 'जो' को पेरिस भागना पड़ता और श्रीमती लेगेट को सारी प्रशंसाओं को
बटोरने का भार अपने ऊपर लेना पड़ता। मैंने केवल दोष ढंकने के लिए डाक्टर हीलर
के समीप एक ईसाई चिकित्सक को, जो वैज्ञानिक तरीकों से (अर्थात मानसिक शक्ति की
सहायता द्वारा) रोग दूर करते हैं, भेज दिया था; किंतु उनकी पत्नी ने उस
चिकित्सक को देखते ही किवाड़ बंद कर लिए--एवं यह स्पष्ट कह दिया कि इन अद्भुत
चिकित्साओं के साथ वे किसी प्रकार का संपर्क रखना नहीं चाहती हैं। अस्तु, मैं
यह विश्वास करता हूँ तथा सर्वांतकरण से प्रार्थना करता हूँ कि इस बार श्रीमती
लेगेट स्वस्थ हो उठे।
मैं आशा करता हूँ कि वसीयतनामा भी शीघ्र पहुँच जाएगा; इसके लिए मैं थोड़ा सा
चिंतित हूँ। भारत से इस डाक के द्वारा वसीयतनामे की एक प्रति मिलने की भी मुझे
आशा थी; कोई पत्र नहीं आया, यहाँ तक कि 'प्रबुद्ध भारत' भी नहीं, यद्यपि मैं
देखता हूँ कि 'प्रबुद्ध भारत' सैनफ्रांसिस्को पहुँच चुका है।
उस दिन समाचारपत्र से यह विदित हुआ कि कलकत्ते में एक सप्ताह के अंदर ५००
व्यक्ति प्लेग से मर चुके हैं। माँ ही जानती हैं कि कैसे मंगल होगा।
मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है श्री लेगेट ने बेदांत-समिति को चालू कर दिया है।
बहुत अच्छी बात है !
ओलिया किस प्रकार है ? निवेदिता कहाँ है ? उस दिन मैंने '२१वाँ मकान, पश्चिम
३४' --इस पते पर उसे एक पत्र लिखा था। यह देखकर कि वह कार्य में अग्रसर हो रही
है, मैं अत्यंत आनंदित हूँ। मेरा आंतरिक स्नेह ग्रहण करें।
आपकी चिरसंतान,
विवेकानन्द
पुनश्च--मेरे लिए जितना करना संभव है, उतना अथवा उससे अधिक कार्य मुझे मिल रहा
है। जैसे भी हो, मैं अपना मार्ग-व्यय अवश्य एकत्र करूँगा। ये लोग यद्यपि मेरी
अधिक सहायता करने में असमर्थ हैं, फिर भी मुझे कुछ न कुछ देते रहते हैं; तथा
मैं भी निरंतर परिश्रम कर जिस तरह भी होगा अपना मार्ग व्यय एकत्र कर सकूँगा और
उसके अतिरिक्त कुछ सौ रुपये भी प्राप्त करूँगा। अतः मेरे खर्च के लिए आप कुछ
भी चिंता न करें।
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
सैनफ्रांसिस्को,
६ अप्रैल,१९००
प्रिय मार्गट,
मुझे यह जानकर खुशी हुई कि तुम लौट चुकी हो--और जब मैंने यह सुना कि तुम पेरिस
जा रही हो, तो और भी खुशी हुई। मैं भी पेरिस जाऊँगा इसमें कोई संदेह नहीं है,
किंतु कब तक जाऊँगा, कह नहीं सकता।
श्रीमती लेगेट कह रही हैं कि अभी मेरा जाना उचित है एवं मुझे फ्रेंच भाषा भी
सीखनी चाहिए। मैं तो यह कहता हूँ कि जो होना है होगा--तुम भी ऐसा ही करो।
तुम अपनी पुस्तक समाप्त कर डालो और उसके उपरांत हम पेरिस में फ्रांसीसियों को
जीतने के लिए चल देंगे। 'मेरी' कैसी है ? उससे मेरा स्नेह कहना। यहाँ का मेरा
कार्य समाप्त हो चुका है। मेरी' यदि वहाँ रहे, तो १५ दिन के अंदर ही मैं
शिकागो रवाना हो रहा हूँ; वह शीघ्र ही पूर्व की ओर रवाना होनेवाली है।
आशीर्वादक,
विवेकानन्द
पुनश्च--मन सर्वव्यापी है। जिस किसी स्थल से भी इसका स्पंदन सुना और अनुभव
किया जा सकता है।
(श्रीमती लेगेट को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
७ अप्रैल, १९००
माँ,
घाव का कारण पूर्णतया दूर हो जाने का समाचार देने के उपलक्ष्य में मेरी बधाई
स्वीकार करें। मुझे कोई संदेह नहीं कि इस बार आप बिल्कुल अच्छी हो जाएंगी।
आपके अत्यंत कृपापूर्ण पत्र से मुझे बड़ी स्फूर्ति मिली। मुझे तनिक भी चिंता
नहीं कि लोग मेरी सहायता के लिए आते हैं या नहीं। मैं दिन-प्रतिदिन शांत और
चिंतारहित होता जा रहा हूँ।
कृपया श्रीमती मेल्टन को मेरा प्यार कहें। मुझे विश्वास है कि देर-सबेर मैं
अच्छा हो ही जाऊँगा। कुल मिलाकर मेरा स्वास्थ्य सुधर रहा है, यद्यपि बीच-बीच
में मैं पुनः गिर पड़ता हूँ। यह बीच-बीच का बीमार पड़ जाना भी मियाद और तेजी
की दृष्टि से कम होता जा रहा है।
जिस तरह से आपने तुरीयानन्द तथा सिरी का इलाज किया, वह आपके ही अनुरूप है।
आपके महान हृदय के लिए आप पर ईश्वर का आशीर्वाद है। आप और आपके स्वजनों का
सदैव कल्याण हो।
यह बिल्कुल सही है कि मुझे फ्रांस जाना चाहिए और फ्रांसीसियों के बीच काम करना
चाहिए। मुझे आशा है कि जुलाई या इसके पूर्व ही मैं फ्रांस पहँच जाऊँगा।
जगन्माता सब जानती हैं। आपका सदा-सर्वदा मंगल हो, यही मेरी प्रार्थना है।
आपका पुत्र,
विवेकानन्द
(एक अमेरिकन मित्र को लिखित)
सैनफ्रांसिस्को,
७ अप्रैल, १९००
प्रिय--,
किंतु अब मैं इतना निश्चल तथा शांत हो चुका हूँ, जैसा पहले कभी नहीं रहा। अब
मैं अपने पैरों पर खड़ा होकर महान आनंद के साथ पूर्ण परिश्रम कर रहा हूँ। कर्म
में ही मेरा अधिकार है, शेष सब "माँ जानें।
देखो, जितने दिन यहाँ रहने को मैंने सोचा था, उससे अधिक दिन यहाँ रहकर मुझे
कार्य करना होगा--ऐसा प्रतीत हो रहा है। किंतु तदर्थ तुम विचलित न होना; अपनी
सारी समस्याओं का समाधान मैं स्वयं ही कर लूंगा। अब मैं अपने पैरों पर खड़ा हो
चुका हूँ एवं मुझे आलोक का भी दर्शन मिल रहा है। सफलता के फलस्वरूप मैं
विपथगामी बन जाता और मैं संन्यासी हूँ इस मूल बात की ओर संभवतः मेरी दृष्टि न
रहती। इसलिए माँ मुझे यह शिक्षा दे रही हैं।
मेरी नौका क्रमशः उस शांत बंदरगाह को जा रही है, जहाँ से उसे कभी हटना न
पड़ेगा। जय, जय माँ! अब मुझे किसी प्रकार की आकांक्षा अथवा कोई उच्चाभिलाषा
नहीं है। 'माँ' का नाम धन्य हो। मैं श्री रामकृष्ण देव का दास हूँ। मैं एक
साधारण यंत्र मात्र हूँ--और मैं कुछ नहीं जानता, जानने की भी मेरी कोई इच्छा
नहीं है। 'वाह गुरु की फतह।'
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
८ अप्रैल, १९००
प्रिय धीरा माता,
इसके साथ अभेदानन्द का एक लम्बा पत्र भेज रहा हूँ। वह पूर्णतया विचलित जान
पड़ता है। मैं इस बात पर निश्चित हूँ कि थोड़ी सी दया उसको पूर्णरूप से वश में
कर लेगी। वह जानता है कि आप उसे न्यूयार्क से बाहर खदेड़ना चाहती हैं आदि-आदि।
वह मेरे आदेश की प्रतीक्षा कर रहा है। मैंने उससे यह कह दिया है कि सारे
विषयों में वह आप पर पूर्ण विश्वास रखे तथा जब तक मैं न पहुँच जाऊँ, तब तक वह
न्यूयार्क में ही रहे।
मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि न्यूयार्क की वर्तमान परिस्थिति में वे लोग मुझे
वहाँ चाहते हैं; क्या आपका भी विचार ऐसा ही है ? तब तो फिर शीघ्र ही चल देना
है। अपने मार्गव्यय के लिए मैं पर्याप्त धन संग्रह कर रहा हूँ। मार्ग में
शिकागो तथा डिट्राएट में उतरने की इच्छा है। शायद तब तक आप चल देंगी।
अभेदानंद ने अब तक बहुत अच्छी तरह से कार्य किया है; और आपको यह पता है कि मैं
अपने कार्यकर्ताओं के कार्यों में कतई हस्तक्षेप नहीं करता हूँ। जो कार्यशील
होते हैं, उनकी एक निजी कार्यपद्धति होती है एवं यदि कोई उसमें हस्तक्षेप करना
चाहे, तो वे उसे ऐसा करने से रोकते हैं। इसलिए अपने कार्यकर्ताओं को मैं पूर्ण
स्वतंत्रता के साथ कार्य करने का अवसर देता हूँ। आप स्वयं ही कार्यक्षेत्र में
हैं और सब कुछ जानती हैं। मुझे क्या करना चाहिए, इस बारे में आपसे मैं उपदेश
चाहता हूँ।
कलकत्ते के लिए जो धन भेजा गया है, वह यथासमय वहाँ पहुंच चुका है। इस डाक से
मुझे इसकी खबर मिली है। मेरी बहन ने अपनी ओर से अभिनंदन एवं कृतज्ञता प्रेषित
की है। लेकिन वह दुःखी है कि वह अंग्रेजी नहीं लिख सकती।
मैं क्रमशः स्वस्थ होता जा रहा हूँ, यहाँ तक कि पहाड़ पर भी मैं चढ़ सकता हूँ।
कभी कभी शरीर अस्वस्थ हो जाता है, किंतु अस्वस्थता का समय और पुनरावृत्ति
क्रमशः घट रहे हैं। श्रीमती मिल्टन को मैं धन्यवाद भेज रहा हूँ।
सिरी ग्रैण्डर ने एक संक्षिप्त पत्र लिखा है। उस पर विश्वास किया गया है, यह
देखकर वह बेचारी बहुत ही कृतज्ञ है--वह भी ठीक श्रीमती लेगेट की तरह ही है।
बहुत ही सुंदर बात है, वाह, शाबाश! धन भी ऐसी कोई बुरी चीज़ नहीं है, यदि उसका
संबंध अच्छे व्यक्ति से हो। मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि 'सिरी' संपूर्ण रूप
से स्वस्थ हो उठे--ओह, बेचारी बहुत ही कष्ट में है।
संभवतः दो सप्ताह के अंदर ही मैं यहाँ से चल दूँगा। पहले मुझ 'स्टार क्लोन'
नामक एक स्थान पर जाना है, उसके बाद पूर्व की ओर रवाना होऊँगा। शायद 'डेलवर'
भी जाना पड़े।
'जो' को हार्दिक स्नेह ज्ञापन कर रहा हूँ।
आपकी चिर संतान,
विवेकानन्द
पुनश्च--इसमें कोई संदेह नहीं कि अंततः मैं स्वस्थ हो जाऊँगा। भाप के इंजन की
तरह मैं कार्य करता जा रहा हूँ--रसोई बनाता हूँ, इच्छानुसार भोजन करता हूँ,
एवं इतने पर भी मुझे नींद ठीक आती है और मैं स्वस्थ हूँ--यदि आप ये देखतीं, तो
बहुत ही अच्छा होता।
अब तक मैंने कुछ भी नहीं लिखा, क्योंकि समयाभाव था। श्रीमती लेगेट स्वस्थ हो
चुकी हैं एवं सदा की भाँति चल-फिर लेती हैं--यह जानकर मुझे खुशी हुई। शीघ्र ही
वे पूर्णरूप से स्वस्थ हों, यही मेरी इच्छा तथा प्रार्थना है।
पुनश्च--श्रीमती सेवियर के एक सुंदर पत्र से यह पता चला कि उन लोगों ने अच्छी
तरह से कार्य चालू कर रखा है ! कलकत्ते में भयानक रूप से प्लेग शुरू हो गया
है; किंतु अबकी बार तदर्थ कोई हलचल नहीं है।
पुनश्च--क्या आपने 'अ' को बता दिया है कि मैंने संपूर्ण कार्यभार आप पर छोड़
रखा है ? हाँ, आपको यह अच्छी प्रकार से विदित है कि कार्य कैसे किया जाता है;
लेकिन इससे वह दुःखित प्रतीत होता है।
वि०
(कुमारी जोसोफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
१७१९, टर्क स्ट्रीट,
सैनफ्रांसिस्को,
१० अप्रैल, १९००
प्रिय 'जो',
मुझे ऐसा दिखायी दे रहा है कि न्यूयार्क में एक शोरगुल मचा हुआ है। अभेदानन्द
ने मुझे एक पत्र लिखकर यह सूचित किया है कि वह न्यूयार्क छोड़कर चला जाएगा।
उसने ऐसा सोचा है कि श्रीमती बुल एवं तुमने उसके विरुद्ध मुझे बहुत कुछ लिखा
है। उसके उत्तर में मैंने उसे धैर्य बनाए रखने के लिए लिखा है और यह सूचित
किया है कि श्रीमती बुल तथा कुमारी मैविलऑड उसके बारे में मुझे केवल अच्छी
बातें ही लिखती हैं।
देखो 'जो-जो', इन सब बातों के बारे में मेरी नीति तो तुम्हें विदित ही है,
अर्थात सारे झंझटों से अलग रहना। 'माँ ही इन विषयों की व्यवस्था करती हैं।
मेरा कार्य समाप्त हो चुका है। 'जो', मैं तो अवकाश ले चुका हूँ। 'माँ' अब
स्वयं ही अपना कार्य संचालित करती रहेंगी। मैं तो इतना ही जानता हूँ।
जैसा कि तुमने परामर्श दिया है, यहाँ पर जो कुछ धन मैंने एकत्र किया है, उसे
अब भेज दूँगा। आज ही मैं भेज सकता था; किंतु हजार की संख्या पूरी करने की
प्रतीक्षा में हैं। इस सप्ताह के समाप्त होने से पूर्व ही सैनफ्रांसिस्को में
एक हजार की पूर्ति की आशा है। न्यूयार्क के नाम मैं एक ड्राफ्ट खरीद कर
भेजूंगा अथवा बैंक को ही समुचित व्यवस्था करने के लिए कहूँगा।
मठ तथा हिमालय से अनेक पत्र आए हैं। आज सुबह स्वरूपानन्द का एक पत्र मिला है;
कल श्रीमती सेवियर का भी एक पत्र आया था।
कुमारी हैन्सबॉरो से मैंने फोटो के बारे में कहा था। श्री लेगेट से मेरा नाम
लेकर वेदांत सोसाइटी के संचालन की समुचित व्यवस्था करने के लिए कहना।
मैंने इतना ही समझा है कि प्रत्येक देश में उसीकी निजी प्रणाली अपनाकर हमें
चलना होगा। अतः यदि तुम्हारे कार्य का संपादन कदाचित् मुझे करना पड़ता, तो मैं
समस्त सहानुभूति रखने वाले सज्जनों की एक सभा बुलाकर उनसे यह पूछता कि वे आपस
में सहयोग स्थापन करना चाहते हैं अथवा नहीं, और यदि चाहते हों, तो उसका रूप
क्या होना चाहिए, आदि। किंतु तुम' बुद्धिमती हो, स्वयं ही इसकी व्यवस्था कर
लेना। मैं इससे मुक्ति चाहता हूँ। यदि तुम यह समझो कि मेरी उपस्थिति से सहायता
मिल सकती है, तो मैं लगभग पंद्रह दिन के अंदर आ सकता हूँ। मेरा यहाँ का कार्य
समाप्त हो चुका है। सैनफ्रांसिस्को के बाहर 'स्टाक्टन' नाम का एक छोटा शहर
है--मैं कुछ दिन वहाँ पर कार्य करना चाहता हूँ। उसके उपरांत' पूर्व की ओर जाना
है। मैं समझता हूँ कि अब मुझे विश्राम लेना आवश्यक है--यद्यपि इस शहर में मैं
प्रति सप्ताह १०० डालर पा सकता हूँ। अब मैं न्यूयार्क पर 'लाइट ब्रिगेड का
आक्रमण'
[2]
चाहता हूँ। मेरा हार्दिक स्नेह जानना।
तुम्हारा चिरस्नेहशील,
विवेकानन्द
पुनश्च--कार्य करनेवाले सभी लोग यदि आपस में सहयोग स्थापन के विरोधी हों, तो
क्या उससे कोई फल मिलने की तुम्हें आशा है ? तुम्ही यह अच्छी तरह से समझ सकती
हो। जैसा उचित प्रतीत हो, करना। निवेदिता ने शिकागो से मुझे एक पत्र लिखा है।
उसने कुछ प्रश्न किए हैं--मैं उनका उत्तर दूँगा।
(एक अमेरिकन मित्र को लिखित)
अलामेडा, कैलिफ़ोनिया,
१२ अप्रैल, १९००
प्रिय--
'माँ' फिर से अनुकूल हो रही हैं। कार्य अब सफल हो रहे हैं। ऐसा होना ही था।
कर्म के साथ दोष अवश्य जुड़ा रहता है। मैंने उस संचित दोष का मूल्य बुरे
स्वास्थ्य के रूप में चुकाया है। मैं प्रसन्न हूँ, उससे मेरा मन भी हलका हो
गया है। जीवन में अब ऐसी शांति और कोमलता आ गई है, जो पहले नहीं थी। मैं अब
आसक्ति और उसके साथ साथ अनासक्ति दोनों सीख रहा हूँ, और क्रमशः अपने मन का
स्वामी बनता जा रहा हूँ...
'माँ ही अपना काम कर रही हैं। मैं अब अधिक चिंता नहीं करता। प्रति क्षण मेरे
समान सहस्रों पतंगें मरते हैं। उनका काम उसी प्रकार चलता रहता है। माँ की जय
हो!...माँ की इच्छा के प्रवाह में निःसंग भाव से बहना, यही मेरा संपूर्ण जीवन
रहा है। जिस समय मैंने इसमें बाधा डालने का यत्न किया है, उसी समय मैंने कष्ट
पाया है। उनकी इच्छा पूर्ण हो!
मैं आनंद में हूँ, मानसिक शांति का अनुभव कर रहा हूँ तथा पहले की अपेक्षा मैं
अब अधिक विरक्त हो गया हूँ। अपने सगे-संबंधियों का प्रेम दिन दिन घट रहा है,
और 'माँ' का प्रेम बढ़ रहा है। दक्षिणेश्वर में वटवृक्ष के नीचे श्री रामकृष्ण
के साथ रात्रिजागरण की स्मृतियाँ एक बार फिर से जाग्रत हो रही हैं। और काम ?
काम क्या है ? किसका काम ? किसके लिए मैं काम करूं ?
मैं स्वतंत्र हूँ। मैं 'माँ' का बालक हूँ। वे ही काम करती हैं, वे ही खेलती
हैं। मैं क्यों संकल्प बनाऊँ ? मैं क्या संकल्प बनाऊँ ? बिना मेरे संकल्प के
'माँ' की इच्छानुसार ही चीजें आयीं और गयीं। हम उनके यंत्र हैं, वे कठपुतली की
तरह नचाती हैं।
विवेकानन्द
(श्री एच० एफ० लेगेट को लिखित)
१७ अप्रैल, १९००
प्रिय श्री लेगेट,
इस पत्र के साथ ही मैं निष्पादित की हुई वसीयत भेज रहा हूँ। यह उनकी
इच्छानुसार ही निष्पादित की गई है। और, जैसा कि मेरे लिए उचित ही है, मैं आपसे
प्रार्थना करूँगा कि इसे आप अपने संरक्षण में लेने की कृपा करें।
आप और आपके परिवारवाले सब समान रूप से मेरे प्रति कृपालु रहे हैं। किंतु आप तो
जानते ही हैं, प्रिय मित्र, यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब उसे कोई वस्तु कहीं
से मिलने लगती है, तब वह उसकी और भी माँग करता है।
मैं तो मनुष्य ही हूँ--आपका बच्चा।
मुझे अत्यंत दुःख है कि ए--ने गड़बड़ी पैदा की। वह कभी-कभी ऐसा किया करता है,
या ऐसा करने की उसकी आदत है। और अधिक परेशानी न उठ खड़ी हो, इस भय से मैं कोई
दखल देने का साहस नहीं करता। जब तक यह पत्र आप तक पहुँचेगा, मैं
सैनफ्रांसिस्को से चल पड़ा होऊँगा। क्या आप कृपया भारत से आयी मेरी डाक मार्फत
श्रीमती हाल अथवा मार्गट, १० एस्टर स्ट्रीट, शिकागो के पते से भेज देंगे?
मार्गट ने मुझे, अपने स्कूल को आपकी एक हजार डालर की भेंट के विषय में अत्यंत
कृतज्ञ भाव से लिखा है।
आप और आपके परिवार ने मेरे और मेरे स्वजनों के प्रति जो बराबर कृपा बरती है,
उसके लिए आपका सदा-सर्वदा कल्याण हो, यही मेरी सतत कामना है।
सस्नेह आपका,
विवेकानन्द
पुनश्च-मुझे यह सुनकर बहुत खुशी है कि श्रीमती लेगेट अच्छी हो गई हैं।
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
अलामेडा, कैलिफोर्निया,
१८ अप्रैल, १९००
प्रिय 'जो',
अभी मुझे तुम्हारा और श्रीमती बुल का आनंददायक पत्र मिला। मैं इसे लंदन भेज
रहा हूँ। यह जानकर कि श्रीमती लेगेट की तबीयत ठीक हो रही है मुझे अति हर्ष
हुआ।
मुझे बड़ा दुःख है कि श्री लेगेट ने सभापति के पद का त्याग कर दिया है। अच्छा,
कहीं मैं और झगड़ा न बढ़ा दूं, इससे डर कर मैं चुप हूँ। तुम जानती हो कि मेरा
तरीक़ा बड़ा कठोर होता है और एक बार उत्तेजित होने से कदाचित् 'अ' को मैं बहुत
कुछ कह जाऊँ, जो वह सहन न कर सके।
मैंने उन्हें केवल यह बतलाने को लिखा कि श्रीमती बुल के संबंध में उनके विचार
सर्वथा अन्यायपूर्ण हैं।
कर्म करना हमेशा कठिन होता है। 'जो' ! मेरे लिए प्रार्थना करो कि मेरा काम सदा
के लिए बंद हो जाए और मेरे प्राण 'माँ' में लीन हो जायें। अपना काम 'माँ' ही
जानती हैं।
एक बार पुनः लंदन आकर तुम आनंदित होगी--वे पुराने मित्र--उन सबको मेरी
कृतज्ञता और प्रेम कहना।
मैं स्वस्थ हूँ, मन से अत्यंत स्वस्थ हूँ। मैं शारीरिक विश्राम की अपेक्षा
आत्म विधाम का अधिक अनुभव करता हूँ। संग्राम में जय-पराजय होती है। मैंने अपनी
गठरी बना ली है और महा मुक्तिदाता की बाट जोह रहा हूँ।
'शिव, हे शिव, मेरी नैया को पार लगा दे।'
'जो' ! यह न भूलना कि मैं वही बालक हूँ, जो निमग्न और विस्मित भाव से
दक्षिणेश्वर में पंचवटी के नीचे बैठकर श्री रामकृष्ण के अद्भुत वचनों को सुनता
था। यही मेरा सच्चा स्वभाव है; कर्म, उद्योग, परोपकार आदि ये सब ऊपरी बातें
हैं। अब मैं फिर उनकी मधुर वाणी सुन रहा हूँ--वही चिर परिचित कंठस्वर जो मेरे
अन्तःकरण को रोमांचित कर देता था। बंधन टूट रहे हैं--प्रेम का दीपक बुझ रहा
है। कर्म रसहीन हो रहा है। जीवन के प्रति आकर्षण भी मन से दूर हो गया है ! अब
केवल गुरु की मधुर गंभीर पुकार ही सुनायी पड़ रही है--'मैं आया,-- प्रभु मैं
आया।' वे कह रहे हैं, 'मृत को स्वयं ही दफनाने दो और तुम मेरे अनुगामी बनो।'
'मैं आता हूँ, मेरे प्राण-वल्लभ! मैं आता हूँ।'
हाँ, मैं आता हूँ। निर्वाण मेरे सामने है। उस शांति के अनंत सागर का, जहाँ
पानी की एक भी हिलोर नहीं है, न हवा की एक साँस--मैं कभी कभी उसका अनुभव करता
हूँ।
मुझे हर्ष है कि मैंने जन्म लिया, हर्ष है कि मैंने कष्ट उठाया, हर्ष है कि
मैंने वड़ी बड़ी भूलें कीं, और हर्ष है कि निर्वाणरूपी शांति-सागर में विलीन
होने जा रहा हूँ। खुद के लिए मैं किसी को बंधन में छोड़कर नहीं जा रहा हूँ, न
मैं कोई बंधन ले जा रहा हूँ। चाहे इस शरीर की मृत्यु से मुझे मुक्ति मिले, या
शरीर के रहते हुए मुक्त हो जाऊँ, वह पहला मनुष्य चला गया, सदा के लिए चला गया
और कभी वापस नहीं आएगा।
शिक्षादाता, गुरु, नेता, आचार्य विवेकानन्द चला गया है केवल वही बालक, प्रभु
का चिरशिष्य, चिरपदाश्रित दास।
तुम समझती हो कि मैं 'अ' के कार्य में हस्तक्षेप क्यों नहीं करना चाहता। 'जो',
मैं कौन हूँ किसी के काम में हस्तक्षेप करनेवाला ? मैंने नेता का अपना स्थान
बहुत दिनों से त्याग दिया--मुझे अब बोलने का अधिकार नहीं है। इस वर्ष के आरंभ
से मैंने भारत में कोई आदेश नहीं दिया। तुम यह जानती हो। तुमने और श्रीमती बुल
ने अब तक मेरे लिए जो कुछ किया, उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। तुम लोगों का
सर्वांगीण कल्याण हो। उनके इच्छाप्रवाह में मैं जब बह रहा था, मेरे जीवन के वे
ही सबसे मधुर क्षण थे। मैं फिर बह रहा हूँ--ऊपर उज्ज्वल और उष्ण सूर्य है और
चारों ओर वनस्पति की बहुलता--गर्मी में सब चीजें निस्तब्ध और शांत हैं--अलसायी
हुई गति से नदी के उष्ण हृदय-पट पर मैं बह रहा हूँ। यह अद्भुत निस्तब्धता, ऐसी
निस्तब्धता जिससे विश्वास होता है कि यह भ्रम है-कहीं यह निस्तब्धता नष्ट न हो
जाए, इस डर से मैं हाथ-पैर नहीं चलाता।
मेरे कर्म के पीछे महत्त्वाकांक्षा थी, प्रेम के पीछे व्यक्तित्व, पवित्रता के
पीछे भय और मेरे पथ-प्रदर्शन के पीछे शक्ति की लालसा। वे अब लुप्त हो रहे हैं
और मैं बह रहा हूँ। मैं आ रहा हूँ। माँ, मैं तुम्हारी स्नेहमयी गोद में आ रहा
हूँ, जहाँ तुम ले जाओगी वहीं बहता हुआ मैं आता हूँ; उस शब्दहीन अपरिचित और
अद्भुत देश में; नाटक का पात्र होकर नहीं-दर्शक बनकर आ रहा हूँ।
अहा ! कितनी शांति है ! हृदय के अन्तःस्थल में मेरे विचार दूर से, बड़ी दूर से
आते हुए मालूम होते हैं। वे निस्तेज, दूर के, धीमे स्वर में बोले हुए शब्द के
सामान जान पड़ते हैं और सब चीजों पर शांति छायी हुई है, मधुर, मधुमयी
शांति--जैसे सोने से पहले दो-चार क्षण के लिए अनुभव होता है, जब सब चीजें
दिखती हैं, पर छायामात्र विदित होती हैं--बिना डर के, बिना प्रेम के, और बिना
भावना के। शांति, जो चित्र और मूर्तियों से घिरे हुए, अकेले में अनुभव होती
है।--मैं आया, प्रभु, मैं आया।
बस यह संसार है--न सुंदर, न भद्दा--भावहीन इंद्रियजनित ज्ञान के समान। अरी
'जो', उस परमानन्द को कैसे कहूँ ! सब वस्तुएँ सुंदर और शिव हैं, सब वस्तुएँ
मेरे लिए अपना व्यावहारिक संबंध खो रही हैं--जिसमें प्रथम मेरा शरीर है। ॐ तत्
सत् !
मुझे आशा है कि लंदन और पेरिस में तुम सबके लिए बड़ी-बड़ी बातें होंगी। नए
आनंद--मन और शरीर के नए लाभ।
तुम्हें और श्रीमती बुल को सदा की भाँति मेरा अनन्य स्नेह।
तुम्हारा शुभचिंतक,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
अलामेडा, कैलिफ़ोनिया,
२० अप्रैल, १९००
प्रिय 'जो',
तुम्हारा पत्र आज मिला। मैंने एक पत्र तुम्हें कल लिखा था, पर यह सोचकर कि तुम
इंग्लैंड में होंगी, उसे वहीं के पते पर भेज दिया था।
मैंने तुम्हारा संदेश श्रीमती बेट्स को पहुँचा दिया है। मुझे अफसोस है कि
ए--के साथ यह झगड़ा हुआ। तुम्हारा भेजा हुआ उनका पत्र भी मुझे मिला। उनका इतना
कहना सही है कि "स्वामी जी ने मुझे लिखा कि श्री लेगेट को वेदांत में कोई रुचि
नहीं है और अब वे कोई सहायता नहीं करेंगे। आप स्वयं अपने पाँवों पर खड़े हों।"
ऐसा उनके यह पूछने पर कि रुपये के लिए मैं क्या करूँ, मैंने तुम्हारी और
श्रीमती लेगेट की इच्छानुसार ही लॉसएंजिलिस से उन्हें न्यूयार्क के विषय में
लिख दिया था।
खैर, सब कुछ अपने समय पर ही होगा लेकिन लगता है श्रीमती बुल और तुम्हारे मन
में यह बात है कि मुझे कुछ करना चाहिए। पहली बात तो यह है कि कठिनाइयाँ क्या
हैं, इस विषय में मैं कुछ जानता ही नहीं। तुम लोगों में से कोई भी मुझे नहीं
लिखता कि वे किसलिए हैं। मैं मन की बात तो पढ़नेवाला हूँ नहीं।
तुमने केवल सामान्य ढंग से मुझे लिख दिया था कि ए--सब कुछ अपने हाथ में रखना
चाहते हैं। इससे मैं क्या समझ सकता हूँ? क्या कठिनाइयाँ हैं ? मतभेद किन चीजों
को लेकर है, इस विषय में मैं उतना ही अज्ञान हूँ, जितना इस विषय में कि
महाप्रलय की निश्चित तिथि क्या है ?
और फिर भी तुम्हारे तथा श्रीमती बुल के पत्रों से काफी खीझ प्रकट होती है !
ये सब मामले कभी कभी हमारे न चाहने के बावजूद भी उलझ जाते हैं। समय पर ये
स्वयं ही सुलझ जाएंगे।
जैसा कि श्रीमती बुल की इच्छा थी मैंने वसीयतनामा तैयार कराके उसे श्री लेगेट
के पास भेज दिया है।
मेरी तबीयत कभी कभी अच्छी हो जाती है, कभी खराब। मेरा अन्तःकरण मुझे यह कहने
की अनुमति नहीं देता कि श्रीमती मिल्टन से (उपचार) मुझे तनिक भी लाभ नहीं हुआ।
वे मेरे प्रति भली रही हैं और मैं उनका आभारी हूँ। उनसे मेरा प्यार कहना। आशा
है उनसे दूसरों को भी लाभ होगा।
श्रीमती बुल को यही बात लिखने पर मुझे चार पृष्ठ का उपदेश सुनने को मिला कि
मुझे किस प्रकार कृतज्ञ और आभारी होना चाहिए, आदि-आदि। यह सब निश्चय ही ए--के
मामले की वजह से है !
स्टर्डी और श्रीमती जॉन्सन मार्गट से परेशान हो गए और मुझ पर पिल पड़े। अब
ए--श्रीमती बुल को परेशान कर रहे है और इसका फल भी मुझे भोगना पड़ेगा। यही
जीवन है!
तुम और श्रीमती लेगेट चाहती थीं कि मैं उसको लिख दूँ कि वह स्वतंत्र और आत्म
निर्भर हो जाए, और यह कि श्री लेगेट उनकी सहायता नहीं करेंगे। मैंने लिख दिया
था, और अब क्या कर सकता हूँ?
यदि कोई ऐरा-गैरा तुम्हारी बात नहीं मानता, तो क्या इसके लिए तुम मुझे फाँसी
पर चढ़ा दोगी? इस वेदांत सोसाइटी के बारे में भला मैं क्या जानता हूँ? क्या
मैंने इसे चालू किया है ? क्या इसमें मेरा कोई हाथ है ?
और फिर मामला क्या है, इस बारे में मुझे कोई कुछ लिखने की तकलीफ भी तो गवारा
नहीं करता!
वाकई यह ससार एक मज़ाक है।
मुझे खुशी है कि श्रीमती लेगेट का स्वास्थ्य तेजी से सुधर रहा है। प्रत्येक
क्षण मैं उनके पूर्ण स्वास्थ्य की प्रार्थना किया करता हूँ। मैं सोमवार को
शिकागो के लिए रवाना हो रहा हूँ। एक कृपालु महिला ने न्यूयार्क तक का एक पास
मुझे दे दिया है, जिसे तीन महीने के भीतर इस्तेमाल किया जा सकता है। मेरी
चिंता जगन्माता करेंगी। आजीवन मेरी रक्षा करने के बाद अब वे मुझसे विमुख नहीं
हो जाएँगी।
तुम्हारा चिरकृतज्ञ,
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
२३ अप्रैल, १९००
प्रिय मेरी,
मुझे आज चल पड़ना चाहिए था, पर परिस्थितियाँ कुछ ऐसी सामने आ गयीं हैं कि जाने
के पूर्व मैं कैलिफोर्निया के विशाल रेड-वुड वृक्षों के नीचे आयोजित एक शिविर
में सम्मिलित होने का लोभ संवरण नहीं कर सकता। इसलिए आने का कार्यक्रम मैं
तीन-चार दिनों के लिए स्थगित करता हूँ। दूसरे लगातार परिश्रम के बाद, इसके
पहले कि मैं चार दिन की हाड़-तोड़ यात्रा के लिए चल पड़ें मुझे भगवान् की दी
हुई मुक्त वायु की थोड़ी आवश्यकता है।
मार्गट अपने पत्र में बार-बार आग्रह करती है कि मैं पंद्रह दिनों के भीतर आंटी
मेरी को देखने के अपने वादे का अवश्य पालन करूँ। उस वादे का पालन तो अवश्य
होगा, पर पंद्रह की बजाए बीस दिन में। तब तक गत कई दिनों से शिकागो में
चलनेवाली बर्फ की आँधी से मैं अपने को बचाए रख सकूँगा और थोड़ी शक्ति भी
प्राप्त हो जाएगी।
ऐसा लगता है मार्गट आंट मेरी की बड़ी हिमायती है, जब कि मेरे अलावा और लोगों
के भी भतीजियाँ, बहनें और चाचियाँ हैं।
कल वन के लिए मैं रवाना हो रहा हूँ। ओह ! शिकागो में घुसने के पूर्व फेफड़ों
को तो ताजी हवा से भर लूं। तब तक एक अच्छी लड़की की तरह शिकागो आनेवाली मेरी
डाक अपने पास रखना और उसे यहाँ मत भेज देना।
मैंने काम समाप्त कर दिया है। मेरे मित्रों का आग्रह है कि मैं रेल का सामना
करने के पहले कुछ दिन--तीन-चार दिन--विश्राम ले लूँ।
यहाँ से न्यूयार्क तक का तीन महीने का एक मुफ्त पास मुझे मिल गया है।
'स्लीपिंग कार' के अतिरिक्त और कोई खर्चा नहीं। इस तरह तुम देखती हो न, सब कुछ
मुफ्त, मुफ्त!
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
३० अप्रैल, १९००
प्रिय मेरी,
आकस्मिक अस्वस्थता तथा ज्वर के कारण अभी भी शिकागो न आ सकने के लिए मैं बाध्य
हूँ। सफर के लायक शक्ति प्राप्त करते ही मैं चल पड़ूंगा। हाल में मुझे मार्गट
का पत्र मिला था। कृपया उससे मेरा प्यार कहना और तुम्हें भी मेरा चिर स्नेह।
हैरियट कहाँ है ? शिकागो में ही ? और मैक्किंडली बहनें ? सबको मेरा प्यार।
विवेकानन्द
(लॉस एंजिलिस की श्रीमती ब्लॉजेट को लिखित)
२ मई, १९००
प्रिय राक्सी चाची,
आपका अत्यंत कृपापूर्ण पत्र मिला। छ: महीने के कठोर श्रम के बाद मैं इस समय
पुनः स्नायु-रोग तथा ज्वर से ग्रस्त हूँ। पर मैं जान गया हूँ कि मेरे गुर्दे
और दिल पहले की तरह ही अच्छे हैं। मैं कुछ दिन तक देहात में विश्राम करूँगा,
तत्पश्चात् शिकागो के लिए रवाना हो जाऊँगा।
अभी ही मैंने श्रीमती मिल्वार्ड एडम्स को एक पत्र लिखा है; और अपनी पुत्री
कुमारी नोबल को उनका परिचय देते हुए कहा है कि वह श्रीमती एडम्स से भेंट करे
और काम के विषय में जो भी जानकारी चाहिए, उन्हें दे।
मेरी अच्छी माँ, कल्याण और शांति सदैव तुम्हारे पास रहें। मुझे थोड़ी शांति की
इस समय बहुत ज़रूरत है--आप मेरे लिए प्रार्थना करें। केट को प्यार।
आपका पुत्र,
विवेकानन्द
पुनश्च--कुमारी स्पेंसर, श्रीमती यस--तथा दूसरे मित्रों से मेरा प्यार कहिएगा।
ट्रिक्स को बन्न बहुत प्यार।
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
२ मई, १९००
प्रिय निवेदिता,
मैं अत्यंत अस्वस्थ हो चुका था--महीने भर तक कठोर परिश्रम करने के फलस्वरूप
पुनः रोग का आक्रमण हुआ था। अस्तु, अब मैं इतना समझ सका हूँ कि मेरे हलिण्ड
अथवा प्लीहा में कोई रोग नहीं है, केवल अधिक परिश्रम के कारण स्नायु क्लांत हो
चुके हैं। अतः आज मैं कुछ दिन के लिए एक गाँव में जा रहा है और जब तक मेरा
शरीर पूर्ण स्वस्थ न हो जाएगा, तब तक मैं वहीं रहूँगा; आशा है कि शीघ्र ही
शरीर ठीक हो जाएगा।
इस बीच प्लेग के समाचारादि से पूर्ण किसी भारतीय का कोई पत्र मैं पढ़ना नहीं
चाहता हूँ। मुझसे सम्बन्धित सारी डाक 'मरी' के पास भेजी जा रही है। मैं जब तक
वापस नहीं आता हूँ, तब तक के लिए मेरे पत्रादि उसके पास अथवा उसके चले जाने पर
तुम अपने पास रखना। मैं सारी दुश्चिंताओं से मुक्त रहना चाहता हूँ। जय माँ !
श्रीमती सी० पी० हंटिंग्टन नामक एक धनी महिला ने मेरी कुछ सहायता की थी; वे
तुमसे मिलना चाहती हैं और तुम्हें कुछ सहायता देना चाहती हैं। १ जून के अंदर
ही वे न्यूयार्क आएंगी। उनसे मिले बिना तुम न चली जाना। मेरे अत्यंत शीघ्र
लौटने की कोई संभावना नहीं है; अतः उनके नाम तुम्हारा एक परिचय-पत्र मैं भेज
दूँगा।
'मेरी' से मेरा स्नेह कहना। मैं दो-चार दिन के अंदर ही रवाना हो रहा हूँ।
सतत शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द
पुनश्च--श्रीमती एम० सी० एडम्स के साथ तुम्हें परिचित कराने के लिए एक पत्र
मैं इसके साथ भेज रहा हूँ; वे जज एडम्स की पत्नी हैं। उनके साथ शीघ्र ही भेंट
करना। इसके फलस्वरूप संभवतः बहुत कुछ कार्य हो सकेगा। वे अत्यंत प्रख्यात
महिला हैं--पूछताछ कर उनका पता लगा लेना।
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
सैनफ्रांसिस्को,
२६ मई, १९००
प्रिय निवेदिता,
मेरा अनंत आशीर्वाद जानना तथा किंचिंमात्र भी निराश न होना। वाह गुरु, वाह
गुरु! क्षत्रिय-रुधिर में तुम्हारा जन्म है। हम लोग जो गैरिक वसन धारण करते
हैं, वह तो समर-क्षेत्र में मृत्यु का ही साज़ है। व्रत-पालन में जीवन को
उत्सर्ग करना ही हमारा आदर्श है, न कि सिद्धिप्राप्ति की व्यग्रता। वाह गुरु !
कुटिल दुर्भाग्य के आवरण कृष्णवर्ण तथा दुर्भेद्य हैं ! किंतु मैं ही सर्वमय
प्रभु हूँ। जिस समय मैं ऊपर की ओर अपने हाथों को उठाता हूँ--तत्क्षण ही वे
अंतर्हित हो जाते हैं। इन सारी वस्तुओं का कोई खास अर्थ नहीं होता है एवं
एकमात्र भय ही इनका जनक है। त्रास का भी मैं त्रासस्वरूप हूँ, रुद्र का भी मैं
रुद्र हूँ। मैं ही अभीः, अद्वितीय तथा एक हूँ। अदृष्ट का मैं नियामक हूँ, मैं
ही कपालमोचन हूँ। श्री वाह गुरु ! शक्तिशालिनी बनो। कांचन अथवा और किसी भी
वस्तु के अधीन न होना; ऐसा होने पर ही सिद्धि हमारे लिए सुनिश्चित है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१९२१ पश्चिम २१वीं स्ट्रीट,
लॉसएंजिलिस,
१७ जून, १९००
प्रिय मेरी,
यह सही है कि मैं पहले से काफी अच्छा हूँ, पर अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुआ
हूँ। दुःख भोगनेवाले हर आदमी की मनःस्थिति एक जैसी होती है। न तो वह गैस है, न
ही अन्य कोई वस्तु।
काली-पूजा किसी भी धर्म का आवश्यक साधन नहीं है। धर्म के विषय में जितना कुछ
भी जानने योग्य है, उपनिषद् उसकी शिक्षा देते हैं। काली-पूजा मेरी अपनी
विशिष्ट 'सनक' है। तुमने कभी भी उसके विषय में मुझे प्रवचन करते या भारत में
उसकी शिक्षा देते हुए नहीं सुना होगा। मैं केवल उन्हीं चीजों की शिक्षा देता
हूँ, जो विश्व-मानवता के लिए हितकर हैं। यदि ऐसी कोई विचित्र विधि है, जो केवल
मुझी पर लागू होती है, तो मैं उसे गुप्त रखता हूँ, और यहीं सब बात खत्म हो
जाती है। मैं तुम्हें नहीं बताऊँगा कि काली-पूजा क्या है, क्योंकि कभी मैंने
इसकी शिक्षा किसीको नहीं दी।
यदि तुम यह सोचती हो कि हिंदू लोग बोस-परिवार का बहिष्कार करते हैं, तो तुम
एकदम भ्रम में हो। अंग्रेज शासक उन्हें एक किनारे धकेल देना चाहते हैं। वास्तव
में भारतीय जाति में वे उस प्रकार का विकास देखना पसंद ही नहीं करते। वे उनका
रहना यहाँ मुहाल किए दे रहे हैं, इसी से वे बाहर जाना चाहते हैं।
'एंग्लिसाइड' (आंग्लीकृत) का मतलब उन लोगों से है, जो अपने रहन सहन तथा आचरण
से यह प्रदर्शित करते हैं कि वे हमारे जैसे निर्वन पुराने ढंग के हिंदुओं पर
शर्म का अनुभव करते हैं। मैं अपनी जाति या जन्म अथवा जातीयता से शर्मिंदा नहीं
हूँ। मुझे आश्चर्य नहीं है कि इस प्रकार के लोगों को हिंदू पसंद नहीं करते।
हमारे धर्म में, जो उपनिषदों के सिद्धांतों पर आधारित है, अनुष्ठानों तथा
प्रतीकों के लिए कोई स्थान नहीं है। बहुत से लोग ऐसा सोचते हैं कि अनुष्ठानों
के संपन्न करने से धर्म का साक्षात्कार करने में सहायता मिलती है। मुझे इसमें
कोई आपत्ति नहीं है।
धर्म वह है जो धर्म-ग्रंथों या उपदेष्टाओं अथवा मसीहा या उद्धारक पर निर्भर
नहीं रहता और जो हमें इस जीवन में या किसी अन्य जीवन में दूसरों पर आश्रित
नहीं बनाता। इस अर्थ में उपनिषदों का अद्वैतवाद ही एकमात्र धर्म है। लेकिन
धर्म-ग्रंथों, मसीहों, अनुष्ठानों आदि का अपना स्थान है। वे बहुतों की सहायता
कर सकते हैं, जैसे कि काली-पूजा मेरे ऐहिक कार्यों में मेरी सहायता करती है।
उन सबका स्वागत है।
पर गुरु का भाव एक दूसरी बात है। यह आत्मिक शक्ति तथा ज्ञान को सम्प्रेषित
करनेवाले तथा उसे ग्रहण करनेवाले के बीच का संबंध है। शारीरिक तथा मानसिक
दृष्टि से प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक विशेष प्रकार (type) होता है। प्रत्येक
दूसरों से निरंतर विचार ग्रहण करते हुए, उन्हें अपने उसी 'प्रकार' के अनुरूप
बना रहा है, अर्थात अपनी जातीयता के आधार पर। इन 'प्रकारों' के विनष्ट होने का
अभी समय नहीं आया है। सब प्रकार की शिक्षा चाहे उसका कोई भी स्रोत हो,
प्रत्येक देश के आदर्शों के अनुकूल है, सिर्फ उन्हें अपनी राष्ट्रीयता के रंग
में रंग लेना आवश्यक है, यानी उस प्रकार की शेष अभिव्यक्ति के साथ उनका
तादात्म्य होना आवश्यक है।
त्याग प्रत्येक जाति का सदैव आदर्श रहा है। दूसरी जातियों को केवल इसका ज्ञान
नहीं है, यद्यपि प्रकृति द्वारा अवचेतन रूप से वे इसका पालन करने को बाध्य
हैं। युग-युग तक एक उद्देश्य निश्चित रूप से चलता रहता है। और वह पृथ्वी तथा
सूर्य के नाश के साथ ही समाप्त होगा। और वास्तव में विविध विश्व निरंतर प्रगति
कर रहे हैं ! और फिर भी अभी तक असीम विश्वों में से कोई इतना विकास नहीं कर
सका कि हमसे संबंध स्थापित कर सके ! सब बकवास ! उनमें भी प्राणी जन्मते हैं,
हमारी जैसी प्रक्रियाएँ वहाँ भी घटित होती हैं और हमारे समान वे भी मरते हैं !
उद्देश्य का विस्तार ! बच्चे हैं ! ओ बच्चो, स्वप्नलोक में ही रहो!
अस्तु, अब अपने बारे में। हैरियट से तुम आग्रह करो कि वह मुझे कुछ डालर
प्रतिमास देती रहे। ऐसा ही करने को मैं दूसरे मित्रों से भी कहूँगा। यदि मैं
सफल हो गया, तो भारत को चल दूँगा। जीविका के लिए इस मंच-कार्य से मैं बेतरह थक
गया हूँ। इसमें अब मुझे कुछ भी आनंद नहीं आता : मैं अवकाश लेकर, यदि कर सका
तो, कुछ विद्वत्तापूर्ण लेखन कार्य करना चाहता हूँ।
शिकागो मैं शीघ्र ही आ रहा हूँ, आशा है दो-चार दिनों के भीतर ही वहाँ पहुँच
जाऊँगा। यह बताओ कि क्या श्रीमती एडम्स मेरे लिए किसी कक्षा का प्रबंध नहीं कर
सकेंगी, जिसकी आमदनी से मैं अपने वापस जाने का भाड़ा चुका सकूँ?
मैं विभिन्न स्थानों में कोशिश करूँगा। मुझमें इतना आशावाद आ गया है मेरी, कि
यदि मेरे पंख होते तो मैं हिमालय उड़ जाता। अपने सारे जीवन में मेरी, मैंने इस
संसार के लिए काम किया, पर यह मेरे शरीर की आध सेर बोटी लिए बिना मुझे रोटी का
एक टुकड़ा तक नहीं देता।
यदि मुझे रोटी का एक टुकड़ा रोज़ मिल जाए, तो मैं बिल्कुल अवकाश ले लूं। किंतु
यह असंभव है। यही शायद उस उद्देश्य का बढ़ता हुआ विस्तार है, जो, जैसे-जैसे
मेरी उम्र बढ़ती जाती है, वैसे वैसे सब घृणित आंतरिकताओं का उद्घाटन करता जा
रहा है !
चिर प्रभुपदाश्रित,
विवेकानन्द
पुनश्च--यदि कभी भी किसी को सांसारिक वस्तुओं की व्यर्थता का बोध हुआ है, तो
इस समय मुझे हो चुका है। यह संसार घृण्य, जघन्य मुर्दे के समान है। जो इसकी
मदद करने की सोचता है, वह मूर्ख है। पर हमें अच्छा या बुरा करते हुए ही अपनी
मुक्ति के लिए प्रयत्न करना होगा। मुझे आशा है कि मैंने ऐसा किया है। प्रभु
मुझे उस मुक्ति की ओर ले चलें। एवमस्तु। मैंने भारत या किसी भी देश पर विचार
करना त्याग दिया है। अब मैं स्वार्थी बन गया हूँ, अपना उद्धार करना चाहता हूँ
!
"जिसने ब्रह्मा को वेद प्रकट किए, जो प्रत्येक के हृदय में व्यक्त है, बंधन से
मुक्ति पाने की आशा से मैं उसी की शरण लेता हूँ।"
[3]
(
भगिनी निवेदिता को लिखित)
न्यूयार्क,
२० जून, १९००
प्रिय निवेदिता,
...ऐसा प्रतीत हो रहा है कि महामाया पुनः सदय हो उठी हैं और चक्र भी धीरे-धीरे
ऊपर की ओर उठ रहा है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
वेदांत सोसाइटी,
१४६ पूर्व ५५वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
२३ जून, १९००
प्रिय मेरी,
तुम्हारे सुंदर पत्र के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। मैं अत्यंत कुशलपूर्वक,
प्रसन्न तथा पहले जैसा ही हूँ। उत्थान के पूर्व लहरें अवश्य उठती हैं। ऐसा ही
मेरे साथ भी है। मुझे बड़ी खुशी है कि तुम मेरे लिए प्रार्थना करने जा रही हो।
तुम मेथाडिस्टों की एक शिविर-सभा क्यों नहीं आयोजित करती ? मुझे यकीन है कि
उसका शीघ्रतर प्रभाव पड़ेगा।
मैं समस्त भावुकता तथा संवेगात्मकता से छुटकारा पाने के लिए कटिबद्ध हूँ, और
अब यदि कभी भी तुम मुझे भावुक देखो तो फांसी पर चढ़ा देना। मैं अद्वैतवादी
हूँ; हमारा लक्ष्य है 'ज्ञान'--कोई भावना नहीं, कोई ममता नहीं, क्योंकि ये सब
जड़-पदार्थ, अंधविश्वास तथा बंधन के अंतर्गत आते हैं। मैं केवल सत एवं ज्ञान
हूँ।
ग्रीनेकर में तुम्हें खूब आराम मिलेगा, मुझे पूरा विश्वास है। वहाँ तुम खब
आनंद मनाओ। एक क्षण के लिए भी मेरी खातिर चिंता न करना। जगन्माता मेरी देखभाल
करती हैं। वे मुझे तेजी से भावुकता के नरक से बाहर निकाल रही हैं और शुद्ध
विवेक के प्रकाश में ले जा रही हैं। तुम्हारे सुख की अनंत कामना सहित।
तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द
पुनश्च--मार्गट २६ को चल रही है। एक दो हफ्ते में मैं भी चल पड़ेंगा। किसी का
मेरे ऊपर वश नहीं, क्योंकि मैं आत्मा हूँ। मेरी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं; यह
सब जगन्माता का काम है, इसमें मेरा कोई योग नहीं। मैं तुम्हारा पत्र नहीं
'पचा' सका, क्योंकि पिछले दिनों मेरी अजीर्ण की शिकायत बढ़ गई थी। अनासक्ति
मेरे साथ सदैव रही है। वह एक क्षण में आयी है। बहुत शीघ्र ही मैं ऐसे स्थान पर
पहुँच जाऊँगा, जहाँ कोई संवेदना, कोई भाव मुझे नहीं छू सकेगा।
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
न्यूयार्क,
२ जुलाई, १९००
प्रिय निवेदिता,
माँ ही सब कुछ जानती हैं--इस बात को मैं बहुधा कहता रहता हूँ। माँ से
प्रार्थना करो। नेता बनना बहुत कठिन है--समुदाय के चरणों में अपना सब कुछ,
यहाँ तक कि अपनी सत्ता तक को अर्पण कर देना पड़ता है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१०२ पूर्व ५८वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
११ जुलाई, १९००
मेरी प्यारी बहन,
तुम्हारा पत्र पाकर और यह जानकर कि तुम ग्रीनेकर जा रही हो, मुझे खुशी हुई।
आशा है इससे तुम खूब लाभ उठाओगी। अपने लंबे बाल कटवा लेने के लिए हर किसी ने
मेरी बहुत आलोचना की है। मुझे दुःख है। तुम्हीं ने मुझे ऐसा करने को मजबूर
किया था।
मैं डिट्राएट गया था और कल वापस आया हूँ। जल्दी से जल्दी फ्रांस जाने की
चेष्टा कर रहा हूँ, फिर वहाँ से भारत को। यहाँ कोई खास समाचार नहीं; काम
समाप्त हो चुका है। मैं नियमित रूप से भोजन करता हूँ और सोता हूँ--बस।
तुम्हारा चिर स्नेही भाई,
विवेकानन्द
पुनश्च-लड़कियों को लिखो कि यदि वहाँ मेरी कोई डाक आयी हो, तो शिकागो के पते
पर भेज दें।
(स्वामी तुरीयानन्द को लिखित)
१०२ पूर्व ५८वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
१८ जुलाई, १९००
प्रिय तुरीयानन्द,
पुनः प्रेषित किया हुआ तुम्हारा पत्र मुझे मिला। डिट्राएट में मैं केवल तीन
दिन ठहरा। इस समय यहाँ न्यूयार्क में भीषण गर्मी है। पिछले हफ्ते भारत से
तुम्हारे लिए कोई डाक नहीं थी। अभी तक भगिनी निवेदिता के बारे में कोई खबर
नहीं मिली।
यहाँ हम लोगों के साथ सब कुछ पहले जैसा ही चल रहा है। कोई विशेष बात नहीं है।
कुमारी मूलर अगस्त में नहीं आ सकतीं। मैं उनका इंतजार नहीं करूँगा। मैं अगली
ट्रेन पकड़ रहा हूँ। जब तक उनकी कोई खबर न मिल जाए वहीं रहो। कुमारी बुक को
प्यार।
प्रभुपदाश्रित,
विवेकानन्द
पुनश्च--करीब एक हफ़्ते हुए काली पहाड़ चला गया। वह सितंबर के पहले वापस नहीं
आ सकता। मैं बिल्कुल अकेला हूँ, और धुलाई कर रहा हूँ, मुझे यह पसंद है। क्या
तुम मेरे मित्रों से मिले हो ? उनसे मेरा प्यार कहना।
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
१०२ पूर्व ५८वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
२० जुलाई, १९००
प्रिय जो,
शायद यह पत्र तुमको मिलने के पहले ही मैं यूरोप--लंदन या पेरिस--स्टीमर के आने
का जैसा भी क्रम हो, पहुँच चुका होऊँगा।
यहाँ का काम मैंने सब व्यवस्थित कर डाला है। श्री ह्विटमार्श के परामर्श के
अनुसार सब काम कुमारी वाल्डो के हाथ में दे दिया गया है।
मुझे भाड़े का प्रबंध करना और चल देना है। शेष सब जगन्माता जानती हैं।
मेरी 'अभिन्न' मित्र अभी प्रबंध नहीं कर पायी हैं। वे मुझे लिखती हैं कि अगस्त
में किसी समय वे आ सकेंगी, और कि वे एक हिंदू को देखने के लिए तरस रही हैं और
उनकी आत्मा भारत माता के लिए लालायित है।
मैंने उन्हें लिख दिया है कि शायद मैं उनसे लंदन में मिल सकें। यह भी जगन्माता
ही जानती हैं। श्रीमती हंटिग्टन ने मार्गट को प्यार भेजा है। यदि वह अपने
वैज्ञानिक प्रदर्शनों में अत्यधिक व्यस्त न हों, तो वे उससे पत्र पाने की आशा
रखती हैं।
तुम्हें, भारत की 'पवित्र गऊ', लेगेट-परिवार तथा अमेरीकन रबर के पौदे
कुमारी--(क्या है उनका नाम ?) को मेरा प्यार।
चिर प्रभुपदाश्रित तुम्हारा,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
१०२ पश्चिम ५८वाँ रास्ता,
न्यूयार्क,
२४ जुलाई, १९००
प्रिय 'जो',
सूर्य =ज्ञान; तरंगायित जल =कर्म; पद्म = प्रेम; सर्प = योग; हंस = आत्मा:
उक्ति
[4]
=हंस (अर्थात परमात्मा) हमें ये प्रदान करें। यह हृदयरूपी सरोवर है। तुम्हें
यह कैसा प्रतीत होता है ? अस्तु, हंस तुम्हें इन वस्तुओं को प्रदान कर
परिपूर्ण बनाए।
आगामी गुरुवार के दिन फ्रेंच जहाज 'लॉ सैंपन' में मेरी यात्रा करने की बात है।
किताबें वाल्डो और ह्विटमार्श के हाथ में हैं। करीब करीब वे तैयार हैं।
मैं सकुशल हूँ, धीरे-धीरे मेरे स्वास्थ्य की उन्नति हो रही है--और आगामी
सप्ताह में जब तुमसे भेंट होगी, तब तक ठीक ही रहूँगा।
सदा प्रभुपदाश्रित,
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(स्वामी तुरीयानन्द को लिखित)
१०२ पूर्व ५८वाँ रास्ता,
न्यूयार्क,
२५ जुलाई, १९००
प्रिय तुरीयानन्द,
श्री हैन्सबॉरो के एक पत्र से यह विदित हुआ कि तुम उनके यहाँ गए थे। वे तुमको
बहुत चाहते हैं और मेरा यह विश्वास है कि तुम भी समझ गए होगे कि उन लोगों की
मित्रता कितनी स्वाभाविक, पवित्र तथा स्वार्थरहित है। कल मैं पेरिस रवाना हो
रहा हूँ, सब कुछ ठीक हो चुका है। अभेदानन्द यहाँ नहीं है। चूंकि मैं जा रहा
हूँ, इसलिए वह कुछ चिंतित हो उठा है--किंतु इसके अलावा उपाय ही क्या है ?
६, प्लेस द-एतात् यूनि-श्री लेगेट के इस पते से अब तुम मुझे पत्र देना।
श्रीमती वाईकाफ़, हैन्सबॉरो तथा हेलेन से मेरा स्नेह कहना। समितियों का कार्य
पुनः सामान्य रूप से प्रारंभ कर दो तथा श्रीमती हैंन्सबॉरो से कहो कि वे समय
पर चंदा वसूल करें और अर्थ संग्रह कर भारत भेजें; क्योंकि सारदा ने लिखा है कि
वे लोग बहुत ही आर्थिक कष्ट में हैं। श्रीमती बुक को मेरी हार्दिक श्रद्धा
कहना। तुम मेरा असीम प्यार जानना।
सतत प्रभुपदाश्रित,
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(मायावती, अद्वैताश्रम के एक ब्रह्मचारी को लिखित)
न्यूयार्क,
अगस्त, १९००
कल्याणीया,
कई दिन पहले तुम्हारा एक पत्र मिला था। अब तक उत्तर नहीं दे पाया। श्री सेवियर
ने अपने पत्र में तुम्हारी प्रशंसा की है। इससे मुझे अत्यंत खुशी हुई।
तुम लोग कौन क्या कर रहे हो इसके विस्तृत विवरण के साथ पत्र देना। तुम अपनी
माता को पत्र क्यों नहीं लिखते? इसका तात्पर्य क्या है ? मातृभक्ति ही समस्त
कल्याण का कारण है। तुम्हारा भाई कलकत्ते में कैसा पढ़-लिख रहा है ?
तुम लोगों का आनंद-नाम भी मुझे याद नहीं है--किसे किस नाम से पुकारें। तुम सभी
को मेरा प्यार। मुझे यह समाचार मिला है कि खगेन का शरीर पूर्ण स्वस्थ हो चुका
है-बहुत ही आनंद की बात है। सेवियर दंपति अच्छी तरह से तुम लोगों की देखभाल
करते हैं या नहीं विस्तृत रूप से मुझे लिखना। दीनू का भी स्वास्थ्य ठीक
है--बहुत ही आनंद का विषय है। काली की कुछ मोटा-ताजा बनने की प्रवृत्ति है;
पहाड़ पर चढ़ने-उतरने से उसकी ये सारी बातें दूर हो जायेगी। स्वरूप से कहना कि
मुझे खुशी है कि वह समाचारपत्र का संचालन कर रहा है। वह बहुत अच्छा कार्य कर
रहा है।
सभी को मेरा प्यार तथा आशीर्वाद देना। सबसे कहना कि मेरा शरीर स्वस्थ हो चुका
है। मैं यहाँ से इंग्लैंड होकर शीघ्र ही भारत रवाना हो रहा हूँ।
साशीर्वाद,
विवेकानन्द
(स्वामी तुरीयानन्द को लिखित)
६ प्लेस द-एतात् यूनि, पेरिस,
१३ अगस्त, १९००
भाई हरि,
कैलिफ़ोर्निया से तुम्हारा पत्र मिला। तीन व्यक्तियों को भावावेश होने लगा,
बुराई क्या है ? उससे बहुत कुछ कार्य होता है। गुरु महाराज जानें। जो होना है,
होने दो। उनका कार्य है, वे ही जानें, हम तो दास के सिवाय और कुछ नहीं हैं।
इस पत्र को, द्वारा श्रीमती एस. पानेल, इस पते से सैनफ्रांसिस्को भेज रहा हूँ।
अभी न्यूयार्क से साधारण समाचार प्राप्त हुआ है। वे लोग कुशलपूर्वक हैं। काली
बाहर गया हुआ है। तुम सैन फ्रांसिस्को में किमासीत प्रभाषेत व्रजेत किम् लिख
भेजना। और मठ में रुपये भेजने के विषय में उदासीन न होना। लॉसएंजिलिस तथा
सैनफ्रांसिस्को से प्रतिमास निश्चित रूप से रुपये जाने चाहिए।
मैं एक प्रकार से ठीक ही हूँ। शीघ्र ही इंग्लैंड रवाना होना है। शरत् का
समाचार मिलता रहता है। बीच में उसको पेचिश हो गई थी। और सब लोग अच्छी तरह से
हैं। अबकी बार किसी को मलेरिया नहीं हुआ है। गंगा-तट पर उसका विशेष आक्रमण भी
नहीं होता है। वर्तमान वर्ष में वर्षा कम होने के कारण बंगाल में अकाल पड़ने
का भय है।
भाई, 'माँ' की कृपा से कार्य में जुटे रहो। 'माँ' जानें, तुम जानो-- मैं मुक्त
हूँ। अब मैं विश्राम लेने जा रहा हूँ।
दास,
विवेकानन्द
(जॉन फाक्स को लिखित)
त्रुलेवर हैन्स सुवन, पेरिस
१४ अगस्त, १९०० ई०
प्रिय श्री फाक्स,
कृपया आप महिम को यह लिखकर सूचित कर दें कि वह चाहे जो भी कुछ क्यों न करे,
मेरा आशीर्वाद उसे सदा ही मिलता रहेगा। और वर्तमान समय में वह जो कुछ कर रहा
है, इसमें संदेह नहीं कि वकालत से वह बहुत कुछ अच्छा है। वीरता तथा साहस को
मैं पसंद करता हूँ, और मेरी जाति के लिए उस प्रकार की तेजस्विता विशेष आवश्यक
है। किंतु मेरा स्वास्थ्य भग्न होता जा रहा है और अधिक दिन जीवित रहने की मेरी
आशा नहीं है। इसलिए माँ तथा समस्त परिवार के उत्तरदायित्व को अपने ऊपर लेने के
लिए वह प्रस्तुत रहे। किसी क्षण भी मेरी मृत्यु हो सकती है। अब मैं उसके लिए
अत्यंत गर्व अनुभव कर रहा हूँ।
आपका स्नेहबद्ध,
विवेकानन्द
(स्वामी तुरीयानन्द को लिखित)
६ प्लेस द एतात युनि,
पेरिस,
भाई हरि,
मैं अब फ्रान्स में समुद्र के किनारे रह रहा हूँ। धर्मेतिहास सम्मेलन समाप्त
हो चुका है। सम्मेलन कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं था। लगभग बीस पंडित मिलकर
शालग्राम की उत्पत्ति, जिहोवा की उत्पत्ति आदि विषयों पर व्यर्थ का बकवाद करते
रहे। मैंने भी अवसर के अनुकूल कुछ कह दिया।
मेरे शरीर एवं मन भग्न हो चुके हैं। विश्राम की आवश्यकता है। फिर भी ऐसा कोई
व्यक्ति नहीं है, जिस पर निर्भर रहा जा सके, और इधर जब तक मैं जीवित रहूँगा,
मुझ पर भरोसा रखकर सब कोई नितांत स्वार्थी बन जाएंगे।
लोगों के साथ व्यवहार करने में दिन-रात मानसिक कष्ट का अनुभव होता है। इसलिए
लिख-पढ़कर मैं पृथक हो चुका हूँ। अब मैं यह लिखे दे रहा हूँ कि किसी का भी
एकाधिपत्य न रहेगा। सभी कार्य बहुमत से संपन्न होंगे...जितने शीघ्र इस प्रकार
के न्यास-संलेख (trust deed) का सम्पादन हो, उतना ही अच्छा है, तभी मुझे कहीं
शांति मिलेगी। अस्तु, स्मारं स्मारं स्वगृहचरितं मुरारि काष्ठस्वरूप हो गए।
[5]
काठ बनने के डर से मैं भाग रहा हूँ, इसमें दोष ही क्या है ?
इस बात को यहीं तक रहने दो। अब तुम लोगों की जैसी इच्छा हो करो। अपना कार्य
मैं समाप्त कर चुका हूं, बस! गुरु महाराज का मैं ऋणी था--प्राणों की बाजी
लगाकर मैंने उस ऋण को चुकाया है। यह बात तुम्हें कहाँ तक बतलाऊँ? समस्त
कर्तृत्व का दस्तावेज़ बनाकर मुझे भेजा गया है। कर्तृत्व को छोड़कर बाकी सभी
स्थलों पर मैंने हस्ताक्षर कर दिया है !. . .
तुमको एवं गंगाधर को और काली, शशि तथा नवीन बालकों को पृथक रखकर राखाल एवं
बाबूराम को मैं कर्तृत्व सौंप रहा हूँ। गुरुदेव उन्हें ही श्रेष्ठ मानते थे।
यह उनका ही कार्य है।. . .मैंने हस्ताक्षर कर दिए हैं। अब जो कुछ मैं करूँगा,
वह मेरा निजी कार्य होगा।. . .
अब मैं अपना कार्य करने के लिए जा रहा हूँ। गुरु महराज के ऋण को
[6]
अपने प्राणों की बाजी लगाकर मैंने चुकाया है। अब मेरे लिए उनका कोई कर्ज
चुकाना शेष नहीं है और न उनका ही मुझ पर कोई दावा है।...
तुम लोग जो कुछ कर रहो हो, वह गुरु महाराज का कार्य है, उसे करते रहो। मुझे जो
कुछ करने का था, मैं कर चुका हूँ, बस। मुझे उस बारे में और कुछ न लिखना और न
बतलाना, उसमें मेरा कोई भी अभिमत नहीं है।... अब सब कुछ भिन्न प्रकार से
होगा।... इति।
नरेन्द्र
पुनश्च--सबसे मेरा प्यार कहना। इति।
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
६ प्लेस द एतात युनि, पेरिस,
२५ अगस्त, १९००
प्रिय निवेदिता,
अभी अभी तुम्हारा पत्र मिला--मेरे प्रति तुमने जो सहृदय वाक्यों का प्रयोग
किया है, तदर्थ अनेक धन्यवाद। मैंने श्रीमती बुल को मठ से रुपये उठा लेने का
अवसर दिया था, किंतु उन्होंने उस बारे में कुछ भी नहीं कहा, और इधर ट्रस्ट के
दस्तावेज दस्तखत के लिए पड़े हुए थे; अतः ब्रिटिश कौन्सिल आफ़िस में जाकर
मैंने उन पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। अब उन दस्तावेजों को भारत भेज दिया गया है
एवं संभवतः वे अभी मार्ग में ही होंगे। अब मैं स्वतंत्र हूं, किसी बंधन में
नहीं है क्योंकि रामकृष्ण मिशन के कार्यों में अब मेरा कोई अधिकार, कर्तृत्व
या किसी पद का उत्तरदायित्व नहीं है। मैं उसके सभापति पद को भी त्याग चुका
हूँ। अब मठ आदि सब कुछ का उत्तरदायित्व श्री रामकृष्ण देव के अन्यान्य
साक्षात् शिष्यों पर है, मुझ पर नहीं। ब्रह्मानन्द अब सभापति निर्वाचित हुए
हैं, उनके बाद क्रमशः प्रेमानन्द इत्यादि पर उसका उत्तरदायित्व होगा।
अब यह सोचकर मुझे आनंदानुभव हो रहा है कि मेरे मस्तक से एक भारी बोझ दूर हो
गया ! मैं अब अपने को विशेष सुखी समझ रहा हूँ।'
लगातार बीस वर्ष तक मैंने श्री रामकृष्ण देव की सेवा की--चाहे उसमें भले हई
हों अथवा सफलता मिली हो--अब मैंने कार्य से छुट्टी ले ली है। अपने अवशिष्ट
जीवन को मैं अब निजी भावनाओं के अनुसार व्यतीत करूँगा।
अब मैं किसी का प्रतिनिधि नहीं हूँ या किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं हूँ। अब
तक अपने मित्रों के प्रति मेरी जो एक प्रकार से वशीभूत रहने की भावना थी, वह
मानो एक दीर्घस्थायी बीमारी जैसी थी। अब पर्याप्त रूप से सोचने-विचारने के बाद
मुझे यह पता चला कि मैं किसी का भी ऋणी नहीं हूँ; प्रत्युत अपने प्राणों की
बाजी लगाकर मैंने अपना सब कुछ प्रदान किया है; किंतु उसके बदले में उन लोगों
ने मुझे गालियाँ दी हैं, मुझे नुकसान पहुंचाने की चेष्टा की है और मुझे हमेशा
तंग तथा परेशान किया है। यहाँ पर या भारत में सभी के साथ मेरा संबंध समाप्त हो
गया है।
तुम्हारे पत्र से ऐसा विदित होता है कि तुमको इस प्रकार का भान हुआ है कि
तुम्हारे नवीन मित्रों के प्रति मैं द्वेष-भाव रखता हूँ। किंतु सदा के लिए मैं
तुमको यह बतला देना चाहता हूँ कि चाहे मुझमें और दोष भले ही हों, परंतु जन्म
से ही मुझमें द्वेष, लोभ तथा कर्तृत्व की भावना नहीं है।
मैंने पहले भी कभी तुमको कोई आदेश नहीं दिया है, अब तो किसी भी कार्य के साथ
मेरा कोई संबंध नहीं है--अब फिर क्या आदेश दूँगा! मैं तो केवल इतना ही जानता
हूँ कि जब तक तुम हार्दिकता के साथ माँ के कार्य करती रहोगी, माँ तब तक अवश्य
ही तुम्हें ठीक मार्ग पर चलाती रहेंगी।
तुमने जिनको अपना मित्र बनाया है, उनमें से किसी के भी प्रति मुझमें कभी कोई
द्वेष-भाव उत्पन्न नहीं हुआ है। किसी से मिलने के कारण मैंने कभी भी अपने
भाइयों की समालोचना नहीं की है। किंतु मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि पाश्चात्य
लोगों में यह एक विशेषता है कि जिसे वे स्वयं अच्छा समझते हैं, उसे दूसरों पर
लादने का प्रयत्न करते हैं--वे यह भूल जाते हैं कि जो एक के लिए लाभदायक है,
वह दूसरे के लिए लाभदायक नहीं भी हो सकता है। मुझे यह डर था कि अपने नवीन
मित्रों से मिलने के फलस्वरूप तुम्हारा हृदय जिस ओर झुकेगा, तुम बलपूर्वक
दूसरों में उस भावना को प्रविष्ट करने के लिए सचेष्ट होगी। एकमात्र इसी कारण
मैंने कभी-कभी किसी विशेष व्यक्ति के प्रभाव से तुम्हें दूर रखने का प्रयास
किया था, इसके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं था। तुम स्वयं स्वतंत्र हो, जो
तुम्हें पसंद हो, उसे ही करती रहो, अपना कार्य स्वयं चुन लो।
अब की बार पूर्ण अवकाश ग्रहण करने की मेरी इच्छा थी। किंतु अब देख रहा हूँ कि
माँ की ऐसी इच्छा है कि अपने आत्मीय वर्ग के लिए मैं कुछ करूँ। ठीक है, बीस
वर्ष पहले मैं जो त्याग चुका था, आनंद के साथ उसका उत्तरदायित्व मैं अपने
कंधों पर ले रहा हूँ। मित्र अथवा शत्रु, 'उनके हाथ के यंत्र हैं और वे हम
लोगों को सुख अथवा दुःख के माध्यम से अपने कर्मों को निःशेष करने में सहायक
हैं। अतः 'माँ' उन सभी व्यक्तियों को आशीर्वाद दें। तुम मेरी प्रीति तथा
आशीर्वाद इत्यादि जानना।
तुम्हारा चिरस्नेहबद्ध,
विवेकानन्द
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
. पेरिस,
२८ अगस्त, १९००ई०
प्रिय निवेदिता,
बस, यही तो जीवन है--केवल मेहनत करते रहो, बस मेहनत करते रहो। इसके अतिरिक्त
हम और कर ही क्या सकते हैं ? मेहनत करते रहो, मेहनत करते रहो। कुछ होना अवश्य
है, कोई न कोई रास्ता अवश्य मिलेगा। और यदि ऐसा न हो--संभवतः वास्तव में ऐसा
कभी नहीं होगा--तो फिर, क्या है ? हमारे जितने भी प्रयास हैं, वे सभी सामयिक
हैं--वे उस चरम परिणति मृत्यु के परिहार के लिए हैं। अहो संपूर्ण क्षतियों की
पूर्ति करने वाली मृत्यु ! तुम्हारे बिना जगत की न जाने क्या दशा होती?
ईश्वर को धन्यवाद है कि यह संसार नित्य नहीं है और न चिरंतन। भविष्य फिर अच्छा
किस प्रकार से हो सकता है ? वह तो वर्तमान का ही परिणाम है; अतः अधिक खराब भले
ही न हो, फिर भी वह वर्तमान के अनुरूप ही होगा।
स्वप्न, अहा ! केवल स्वप्न ! स्वप्न देखते रहो ! स्वप्न--स्वप्न की पहेली ही
इस जीवन का कारण है, और उसके अंदर ही इस जीवन का समाधान भी मौजूद कैं। स्वप्न,
स्वप्न, केवल स्वप्न ही है ! स्वप्न के द्वारा ही स्वप्न को दूर करो।
मैं फ्रेंच भाषा सीखने का प्रयास कर रहा हूँ और यहाँ--के साथ उस भाषा में
बातें कर रहा हूँ। अभी से बहुत से लोग प्रशंसा कर रहे हैं। सारी दुनिया के साथ
बड़ी अंतहीन गोरखधंधे की बातें, भाग्य' की सीमाहीन उत्थान--पतन की बातें जिसका
छोर ढूंढना किसी के लिए भी संभव नहीं है। फिर भी प्रत्येक व्यक्ति उस समय ऐसा
समझने लगता है कि मैंने उसे ढूंढ निकाला है और उसके द्वारा कम से कम उसे स्वयं
तृप्ति मिलती है तथा कुछ क्षण के लिए वह अपने को भुलावे में डाल रखता है--क्या
यह सत्य नहीं है ?
हाँ, एक बात यह है कि अब महान कार्य करने होंगे। किंतु महान कार्य के लिए कौन
माथापच्ची करता है ? सामान्य कार्य भी कुछ क्यों न किए जाएं ? किसी की अपेक्षा
कोई हीन तो नहीं है। गीता तो छोटे के अंदर महान को देखने की शिक्षा देती है।
धन्य है वह ग्रंथ ! ...
शरीर के बारे में सोचने-विचारने के लिए मुझे विशेष अवकाश नहीं था। इस लिए वह
ठीक ही है, ऐसा समझ लेना चाहिए। इस संसार में कोई भी वस्तु चिर-काल के लिए भली
नहीं है। किंतु हम बीच-बीच में यह भूल जाते हैं कि भलाई का तात्पर्य केवल भला
होना तथा भलाई करना है।
चाहे भला हो या बुरा, हम लोग सभी इस संसार में अपना अपना अभिनय कर रहे हैं। जब
स्वप्न टूट जाएगा और हम इस रंगमंच को छोड़कर चले जाएंगे, तभी हम खुले दिल से
इन विषयों को लेकर हँसते रहेंगे। एकमात्र यही बात निश्चित रूप से मेरी समझ में
आयी है।
तुम्हारा, विवेकानन्द
(स्वामी तुरीयानन्द को लिखित)
पोस्ट आफ़िस दे फारेस्ट
सॉन्ताक्लॉरा को,
६ प्लेसद एतात युनि, पेरिस,
१ सितंबर, १९००
प्रेमास्पद,
तुम्हारे पत्र से सब समाचार विदित हुए। कुछ दिन पहले ही सैनफ्रांसिस्को से
पूर्ण वेदांती तथा सत्याश्रम (Home of Truth) के बीच कुछ मतभेद होने का आभास
मुझे मिला था। एक व्यक्ति ने ऐसा लिखा था। इस प्रकार होना स्वाभाविक है,
बुद्धिपूर्वक सबको संतुष्ट करते हुए कार्य को चालू रखना ही विज्ञता है।
मैं अब कुछ दिन के लिए अज्ञातवास कर रहा हूँ। फ्रांसीसियों के साथ इसलिए रहना
है कि मुझे उनकी भाषा सीखनी है। मैं एक प्रकार से निश्चिन्त हो चुका हूँ
अर्थात न्यास-संलेख (ट्रस्ट डीड) पर हस्ताक्षर करके मैंने उसे कलकत्ता भेज
दिया है; मैंने उसमें अपना कोई निजी स्वत्व या अधिकार नहीं रखा है। तुम लोग अब
सभी विषयों के मालिक हो, मुझे विश्वास है कि प्रभुकृपा से तुम लोग समस्त
कार्यों का संचालन कर सकोगे।
व्यर्थ का चक्कर काटकर मेरी अपने को मारने की अब अधिक इच्छा नहीं है; कहीं पर
बैठकर पुस्तकादि के आधार पर कालक्षेप करना अब मेरा ध्येय है। फ्रेंच भाषा पर
कुछ अंशों तक मेरा अधिकार हो चुका है, दो-एक महीने उनके साथ रहने से ही मैं उस
भाषा में अच्छी तरह वार्तालाप कर सकूँगा।
फ्रेंच तथा जर्मन--इन दोनों भाषाओं में दक्षता प्राप्त होने पर यूरोपीय विद्या
में बहुत कुछ प्रवेश हो सकता है। फ्रेंच लोग केवल माथापच्ची करनेवाले होते
हैं, इन लोगों की आकांक्षाएँ इस लोक पर ही केंद्रित हैं; इन लोगों की यह दृढ़
धारणा है कि ईश्वर या जीव कुसंस्कार मात्र हैं, उस बारे में वे बातें ही नहीं
करना चाहते !!! यह असली चार्वाक का देश है। देखना है कि प्रभु क्या करते हैं।
किंतु यह देश पाश्चात्य सभ्यता का शीर्षस्थानीय है। पेरिस नगरी पाश्चात्य
सभ्यता की राजधानी है।
भाई, प्रचार संबधी समस्त कार्यों से तुम लोग मुझे मुक्त कर दो। मैं अब उससे
दूर हूँ, तुम लोग स्वंय सँभालो। मेरी यह दृढ़ धारणा है कि 'माँ' मेरी अपेक्षा
सौ गुना कार्य तुम लोगों के द्वारा संपादित करेंगी।
काली का एक पत्र बहुत दिन पहले मुझे मिला था। वह अब तक संभवतः न्यूयार्क आ गया
होगा। कुमारी वाल्डो बीच बीच में समाचार लेती रहती है।
मेरा शरीर कभी ठीक रहता है और कभी अस्वस्थ। कुछ दिनों से पुनः श्रीमती वाल्डन
की वही मर्दन-चिकित्सा जारी है। उसका कहना है कि मैं इस बीच ठीक हो चुका हूँ !
मैं तो सिर्फ यह देख रहा हूँ कि चाहे अब मेरे पेट में वायु की शिकायत कितनी भी
क्यों न हो, चलने-फिरने अथवा पहाड़ पर चढ़ने में मुझे कोई कष्ट नहीं होता है।
प्रातःकाल मैं खूब डंड-बैठक लगाता हूँ। फिर ठंडे पानी में गोता लगाता हूँ !!
जिसके साथ मुझे यहाँ रहना है, कल मैं उसका मकान देख आया हूँ। वह गरीब है,
किंतु विद्वान् है; उसके रहने की जगह पुस्तकों से भरी हुई है, वह छठी मंजिल पर
रहता है। यहाँ अमेरिका की तरह लिफ्ट' की व्यवस्था नहीं है--चढ़ना-उतरना पड़ता
है। किंतु अब मुझे इस कारण कोई कष्ट नहीं होता।
उसके मकान के चारों ओर एक सुंदर सार्वजनिक पार्क है। वह अंग्रेज़ी नहीं बोल
सकता है, खासकर इसीलिए मैं वहाँ जा रहा हूँ। बाध्य होकर मुझे भी फ्रेंच भाषा
का प्रयोग करना होगा। आगे 'माँ' की इच्छा है। सब कुछ उसका ही कार्य है, वे ही
जानती हैं। साफ-साफ तो वे कुछ भी नहीं बतलाती, 'गुम होकर रहती हैं', किंतु मैं
यह देख रहा हूँ, कि इस बीच मेरा ध्यान-जप भी अच्छी तरह से चालू है।
कुमारी बुक, कुमारी वेल, श्रीमती ऐंपीनल, कुमारी वेकहम, श्री जार्ज, डा० लॉगन
आदि मेरे सभी मित्रों से मेरी प्रीति कहना तथा तुम स्वयं जानना।
लॉसएंजिलिस में सभी से मेरी प्रीति कहना।
विवेकानन्द
(श्रीमती फ्रांसिस लेगेट को लिखित)
६ प्लेस द एतात युनि,
पेरिस,
३ सितंबर, १९००
प्रिय माँ,
यहाँ इस भवन में हमारी सनकियों की एक सभा हुई।
भिन्न-भिन्न देशों से प्रतिनिधि आए, दक्षिण में भारत से लेकर उत्तर में
स्कॉटलैंड तक से, इंग्लैंड और अमेरिका ने दोनों पक्षों को आधार प्रदान किया।
हमें अध्यक्ष चुनने में बड़ी कठिनाई हुई, क्योंकि यद्यपि डा. जेम्स (प्रो०
विलियम जेम्स) थे, वे विश्व की समस्याओं के हल की अपेक्षा श्रीमती मेल्टन
(शायद एक चुंबकीय चिकित्सक (magnetic healer)) द्वारा उठाए अपने शरीर के
फफोलों को अधिक मन में बसाए हुए थे।
मैंने 'जो' (जोसेफ़िन मैक्लिऑड) के लिए प्रस्ताव किया, किंतु उसने इस लिए
अस्वीकार कर दिया कि उसका नया गाउन नहीं आया था--और वह एक कोने से, विजय की
पृष्ठभूमि से, सारे दृश्य को देखने के लिए चली गई।
श्रीमती (ओलि) बुल तैयार थीं, किंतु मार्गट (भगिनी निवेदिता) ने इस सभा के एक
तुलनात्मक दर्शन कक्षा का रूप धारण करने पर आपत्ति की। जब हम लोग इस प्रकार
किंकर्तव्यविमूढ़ थे, तभी एक छोटा, गठीला और गोल-मटोल व्यक्ति एक कोने से उठा
और बिना किसी औपचारिकता के उसने घोषणा की, यदि हम सूर्यदेव और चंद्रदेव की
उपासना करें, तो सभी कठिनाइयाँ अपने आप दूर हो जाएंगी, न केवल अध्यक्ष चुनने
की समस्या, वरन् स्वयं जीवन की समस्या हल हो जाएगी। उसने अपना भाषण पाँच मिनट
में समाप्त कर लिया, किंतु उसके शिष्य को, जो उपस्थित था, उसका अनुवाद करने
में पूरा पौन घंटा लगा। इसी बीच उसके गुरु उठे और अपने कमरे के बिछौने इस
उद्देश्य से लपेटने लगे, जैसा कि उन्होंने कहा, कि वे हमें तत्काल
'अग्निदेवता' की शक्ति का प्रत्यक्ष प्रदर्शन देंगे।
इस समय 'जो' ने आपत्ति की और अपने कमरे में 'अग्नि-यज्ञ' नहीं चाहती, इस बात
पर उसने जोर दिया। इस पर भारतीय साधु ने 'जो' की ओर उसके व्यवहार पर घोर
अप्रसन्न होकर बड़ी क्रुद्ध दृष्टि से देखा--उसको विश्वास था कि वह
अग्नि-उपासना में पूर्णरूप से दीक्षित हो गई है।
तब डा. जेम्स ने अपने फफोलों की सेवा करने से एक मिनट निकालकर घोषणा की कि यदि
वे मेल्टन के फफोलों के विकास में पूर्णतया व्यस्त न होते, तो वे 'अग्निदेव'
तथा उनके भाइयों के ऊपर बड़ी रोचक बातें कहते। इसके अतिरिक्त चूंकि उनके महान
गुरु हर्बट स्पेंसर ने इस विषय की गवेषणा उनके पूर्व नहीं की, अतः वे मौन ही
रहेंगे।
द्वार के पास से एक आवाज़ आयी, वह वस्तु चटनी' है। हम सबने मुड़कर देखा कि वह
मार्गट है। उसने कहा, " 'चटनी ही है। 'चटनी' और काली जीवन की सभी कठिनाइयों को
दूर कर देंगी और हम लोगों को सारी बुराई पी जाने तथा अच्छाई को समझने के योग्य
बना देंगी।" लेकिन वह अचानक रुक गई और दृढ़तापूर्वक बोली कि वह आगे कुछ न
कहेगी, क्योंकि श्रोताओं में से एक नर प्राणी के द्वारा उसे बोलने में बाधा
पहुँचायी गई है। उसे निश्चय था कि श्रोताओं में से एक व्यक्ति ने खिड़की की ओर
सिर मोड़ लिया था और एक महिला के प्रति उचित ध्यान नहीं दे रहा था। यद्यपि वह
स्वयं स्त्री-पुरुष की समानता में विश्वास करती थी, तथापि उसने उस घृणास्पद
व्यक्ति की स्त्रियों के प्रति आदर की भावना के अभाव के कारण को जानना चाहा।
तब सभी लोगों ने घोषणा की कि वे उसके प्रति पूर्ण ध्यान दे रहे हैं, और सबसे
ऊपर समान अधिकार दे रहे हैं, परंतु इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। मार्गट को उस
भीषण समूह से कोई सरोकार नहीं था और वह बैठ गई।
तब बोस्टन की श्रीमती बुल खड़ी हुईं और यह समझाने लगी कि किस प्रकार दुनिया की
सारी कठिनाइयाँ स्त्री-पुरुष के सच्चे संबंध को न समझने के कारण हैं। 'उचित
व्यक्तियों को ठीक प्रकार समझना ही इसका एकमात्र इलाज है और तब प्रेम में
मुक्ति पाना और मुक्ति, मातृत्व, भ्रातृत्व, पितृत्व, तथा ईश्वरत्व में
स्वातंत्र्य, प्रेम में स्वातंत्र्य और स्वातंत्र्य में प्रेम तथा
स्त्री-पुरुष के संबंध में सच्चे आदर्श की उचित प्रतिष्ठा करना।'
इस पर स्कॉटलैंड के प्रतिनिधि ने दृढ़तापूर्वक आपत्ति की और कहा, क्योंकि
शिकारी ने चरवाहे का पीछा किया, चरवाहे ने गड़रिये का, गड़रिये ने किसान का और
किसान ने मछुए को समुद्र में खदेड़ भगाया, अब हमने गहरे समुद्र से मछुए को
पकड़ना चाहा और उसे किसान पर आक्रमण करने दिया इत्यादि। इस प्रकार जीवन का
जाला पूर्ण हो जाएगा और हम सब लोग प्रसन्न होंगे--पर उसे यह खदेड़ने का कार्य
बहुत काल तक नहीं करने दिया गया। एक क्षण में प्रत्येक व्यक्ति खड़ा हो गया और
हमने केवल शब्दों का एक हो-हल्ला सुना--'सूर्यदेव और चंद्र देव', 'चटनी और
काली', 'ठीक समझ रखने की स्वतंत्रता, स्त्री-पुरुष संबंध; मातृत्व,' 'कभी
नहीं, मछुए को अवश्य ही समुद्रतट वापस जाना होगा' इत्यादि। इस पर 'जो' ने
घोषणा की कि इस समय वह शिकारी का पार्ट अदा करने के लिए इच्छुक है, और यदि वे
अपनी मूर्खता का परित्याग नहीं करते, तो वह उन्हें अपने घर से खदेड़ भगाएगी।
तब शांति हुई और सुस्थिरता आयी और मैं यह पत्र लिखने में लग गया हूँ।
आपका सस्नेह,
विवेकानन्द
(कुमारी अल्बर्दा स्टारगीज़ को लिखित)
६ प्लेस द एतात युनि, पेरिस,
फ्रांस,
१० सितंबर, १९००
प्रिय अल्बर्टा,
निश्चय ही आज शाम को मैं आ रहा हूँ और अवश्य ही राजकुमारी (संभवतः राजकुमारी
डेमीडॉफ) और उनके भाई से मिलकर प्रसन्न होऊँगा। किंतु, यदि मुझे यहाँ आने में
अधिक देर हो जाए, तो तुम्हें घर में मेरे लिए कोई सोने का स्थान खोज रखना
होगा।
स्नेह तथा आशीष सहित तुम्हारा,
विवेकानन्द
(स्वामी तुरीयानन्द को लिखित)
६ प्लेस द एतात युनि,
सितंबर, १९००
प्रिय तुरीयानन्द,
अभी अभी तुम्हारा पत्र मिला। 'माँ' की इच्छा से सब कार्य चलते रहेंगे, डरने की
कोई बात नहीं है। मैं शीघ्र ही यहाँ से दूसरी जगह जा रहा हूँ। संभवतः 'कान्स्ट
टिनोप्ल' तथा कुछ अन्य स्थानों में कुछ दिन तक भ्रमण करता रहूँगा। आगे 'माँ'
जानें। श्रीमती वीलमॉट का पत्र मिला। उससे पता चला कि उसमें बहुत कुछ उत्साह
है। निश्चिन्त रहो और जमकर बैठ जाओ। सब कुछ ठीक हो जाएगा। अगर 'नाद-श्रवण' आदि
से किसीको कोई नुकसान पहुंचे, तो इससे वह मुक्त हो सकता है, यदि वह ध्यान करना
कुछ समय के लिए छोड़ दे और मांस मछली खाना प्रारंभ कर दे। अगर देह क्रमशः
कमजोर नहीं हो रही है, तो चिंता करने का कोई कारण नहीं। धीरे-धीरे अभ्यास करना
चाहिए।
तुम्हारे पत्र का जवाब आने से पहले ही मैं इस स्थान से चल दूँगा। अतः इसका
जवाब यहाँ न भेजना। शारदा के प्रेषित काराजादि सब कुछ मुझे मिल गए हैं। और उसे
कुछ सप्ताह पूर्व बहुत कुछ लिखा जा चुका है। भविष्य में उसे और भी लिखने का
विचार है।
अब मुझे कहाँ रवाना होना है, इसका कोई निश्चय नहीं है। केवल मैं इतना ही लिख
सकता हूँ कि मैं निश्चिन्त होने का प्रयास कर रहा हूँ।
काली का एक पत्र आज मुझे मिला है। उसका जवाब कल दूँगा। मेरा शरीर एक प्रकार से
ठीक ही चल रहा है। परिश्रम करने से गड़बड़ी होती है, और बिना परिश्रम के ठीक
रहता हूँ, बस, यही स्थिति है। 'माँ' जानें। निवेदिता इंग्लैंड गई हुई हैं,
श्रीमती बुल और वह--दोनों मिलकर धन संग्रह कर रही हैं। किशनगढ़ की बालिकाओं को
लेकर वहीं पर वह स्कूल खोलना चाहती हैं। वह जो कुछ कर सके--ठीक है। मैं अब
किसी विषय में कुछ भी नहीं कहता हूँ--बस इतना ही है। .
मेरा स्नेह जानना। किंतु कार्य के संबंध में मुझे कोई उपदेश नहीं देना है।
इति। दास।
विवेकानन्द
(कुमारी अल्बर्टा स्टारगीज़ के प्रति उसकी २३वीं वर्षगांठ पर)
पेरोस गइरी, ब्रीटानी,
२२ सितंबर, १९००
माँ का हृदय, वीर की इच्छा,
मधुरतम स्पर्श मृदुतम सुमनों का,
शक्ति और सौंदर्य की सतत प्रभुता,
यज्ञ की अग्नि की ज्वालामय क्रीड़ा,
शक्ति जो पथ दिखलाती;
प्रेम की अनुगामिनी जो
सुदूरगामी स्वप्न और व्यवहार में धीरज,
आत्मा में चिरंतन श्रद्धा,
सबमें, लघु और गुरु में, दिव्य दृष्टि
ये सब और जितना मैं देखने में समर्थ, उतने से अधिक
आज 'माँ' प्रदान कर दें तुम्हें।
सस्नेह और साशीर्वाद तुम्हारा सदैव,
विवेकानन्द
प्रिय अल्बर्टा,
यह छोटी सी कविता तुम्हारे जन्म-दिन के उपलक्ष्य में है। यह अच्छी नहीं है, पर
इसमें मेरा समस्त प्रेम निहित है। अतः मुझे विश्वास है, तुम इसे पसंद करोगी।
कृपया क्या तुम वहाँ पुस्तिका की एक एक प्रति मादाम बेसनार्ड को क्लेरोइ, बेस
कंपेन, ओआइस के पते पर भेज दोगी?
तुम्हारा शुभचिंतक,
विवेकानन्द
६ लेस द एतात युनि, पेरिस,
फ्रांस,
अक्तूबर, १९००
प्रिय कुमारी जी,
मैं यहाँ अत्यंत प्रसन्न एवं संतुष्ट रहा हूँ। कई वर्षों बाद मेरा समय यहाँ
बहुत अच्छी तरह बीत रहा है। यहाँ श्री बोया के साथ रहकर जीवन मुझे अत्यंत
संतोषजनक लग रहा है--सभी कुछ यहाँ है : पुस्तकें, शांति और उन सब चीजों का
अभाव जो मुझे सामान्यतः कष्ट देती हैं।
लेकिन मैं नहीं जानता कि अब भविष्य में कौन सी नियति मेरी प्रतीक्षा कर रही
है।
मेरा पत्र' हास्यास्पद है, है न ! लेकिन यह मेरा प्रथम प्रयास है।
आपका,
विवेकानन्द
(भगिनी क्रिश्चिन को लिखित)
[7]
६ प्लेस द एतात युनि, पेरिस,
१४ अक्तूबर, १९००
प्रिय क्रिश्चिन,
ईश्वर पग-पग पर तुम्हारा कल्याण करें, यही मेरी सतत प्रार्थना है।
तुम्हारे इतने सुंदर और इतने शांत पत्र ने मुझे ऐसी नयी शक्ति दी है, जिसे मैं
अक्सर ही खोता जा रहा हूँ।
मैं सुखी हूँ। हाँ, मैं सुखी हूँ, पर चिंताओं ने पूरी तरह से मेरा पीछा नहीं
छोड़ा है। दुर्भाग्यवश वे कभी-कभी लौट आती हैं, पर अब उनमें वह पहले जैसी मन
को अस्वस्थ बना देनेवाली बात नहीं रही।
मैं मोशियो जुल बोया नामक एक प्रसिद्ध फ्रेंच लेखक के यहाँ ठहरा हुआ हूँ। मैं
उनका मेहमान हूँ। चूंकि कलम ही उनकी रोजी का साधन है, अतः वे धनी नहीं हैं। पर
हम लोगों के कई महान विचार आपस में मिलते हैं, इसलिए हममें खूब पटती है।
कुछ वर्ष पहले उन्हें मेरा पता लगा था और उन्होंने मेरी कई पुस्तिकाएँ फ्रेंच
में अनुवादित भी कर डाली हैं। अंत में जाकर हम दोनों पाएंगे कि हमें किस वस्तु
की खोज थी, है न?
इस प्रकार मैं मादाम क्लावे, कुमारी मैक्लिऑड तथा मोशियो जुल बोया के संग
यात्रा करूँगा। मैं प्रसिद्ध गायिका मादाम कालभे का अतिथि रहूँगा। .
हम कांस्टान्टिनोपल, निकट-पूर्व,यूनान तथा मिस्र जाएंगे। लौटते समय वेनिस भी
देखेंगे।
यह संभव है कि पेरिस में मैं लौटने के बाद कुछ व्याख्यान दूं, लेकिन वे
अंग्रेजी में होंगे, जिन्हें एक दुभाषिया फ्रेंच में अनुवाद करता चलेगा।
न तो मेरे पास समय है, न इतनी शक्ति ही कि इस उम्र में मैं एक नयी भाषा का
अध्ययन करूँ। मैं एक बूढ़ा आदमी हूँ, है न ?
श्रीमती फंक बीमार हैं। मेरा ख्याल है, वे बहुत अधिक परिश्रम करती हैं। उनको
पहले से ही कुछ स्नायविक कष्ट था। आशा है कि वे शीघ्र ही अच्छी हो जाएंगी।
जितना भी रुपया मैंने अमेरिका में कमाया था, वह सब मैं भारत भेज रहा हूँ। अब
मैं मुक्त हूँ। पहले की तरह ही एक भिक्षु-संन्यासी। मठ के अध्यक्ष-पद से भी
मैंने त्याग-पत्र दे दिया है। ईश्वर को धन्यवाद कि मैं मुक्त हूँ। अब ऐसी
जिम्मेदारी अपने सिर पर लेना मेरे बूते की बात नहीं। मैं बहुत विक्षुब्ध और
दुर्बल हो गया हूँ।
'जिस प्रकार पेड़ की डालियों पर सोती हुई चिड़ियाँ जग जाती हैं और सुबह होने
के साथ गाती हुई गहन नीलाकाश में ऊपर उड़ जाती हैं, उसी प्रकार मेरे जीवन का
अंत भी है।'
मुझे अनेक कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं और इसके साथ ही कई महान सफलताएँ भी मिलीं।
किंतु मेरी तमाम कठिनाइयों और कष्टों का कोई मूल्य नहीं, क्योंकि अंत में मैं
सफल हुआ हूँ। मैंने अपना लक्ष्य पा लिया है। मुझे वह मोती मिल गया है, जिसके
लिए मैंने जीवनरूपी सागर में गोता लगाया था। मैं पुरस्कृत हुआ हूँ। मैं
संतुष्ट हूँ।
इस तरह मुझे ऐसा लगता है, जैसे मेरे जीवन का एक नया अध्याय खुल रहा है। मुझे
ऐसा लगता है, जैसे अब जगन्माता जीवन-मार्ग पर मुझे मंद-मंद बिना किसी अवरोध के
ले चलेंगी। विघ्न-बाधाओं से पूर्ण मार्ग पर अब नहीं चलना पड़ेगा, अब जीवन
फूलों की सेज होगा। इसे समझ रही हो न? विश्वास करो, मैं इस विषय में पूर्ण
आश्वस्त हूँ।
अब तक के मेरे समस्त जीवन के अनुभवों ने मुझे सिखाया है--और इसके लिए मैं
ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ--कि मैंने जिस भी वस्तु की उत्कटता से इच्छा की है,
वह मुझे मिली है। कभी-कभी बहुत भोगने के बाद, पर इसकी कोई बात नहीं--वह सब कुछ
पुरस्कार की मधुरता में भूल जाता है। तुम भी तो परेशानियों से गुजर रही हो, पर
तुम्हें भी पुरस्कार अवश्य मिलेगा। दुःख इस बात का है कि इस समय जो भी तुम्हें
मिल रहा है, वह पुरस्कार नहीं, वरन् अतिरिक्त कष्ट है।
जहाँ तक मेरी बात है, मैं तो अपने बुरे कर्मों के बादलों को उठता हुआ और लोप
होता हुआ देख रहा हूँ। और मेरे अच्छे कर्मों का चमकता हुआ सुंदर और शक्तिशाली
सूर्य उग रहा है। यही तुम्हारे साथ भी होगा। इस भाषा का मेरा ज्ञान मेरी
भावनाओं को वहन करने में असमर्थ है। लेकिन फिर कौन सी ऐसी भाषा है, जो ऐसा
करने में समर्थ है ?
इसलिए अब मैं यहीं बस करता हूँ। तुम्हारे हृदय पर यह छोड़ देता हूँ कि वह मेरे
विचारों को कोमल, मधुर और उज्ज्वल भाषा का जामा पहनाए। शुभरात्रि!
तुम्हारा सच्चा मित्र, विवेकानन्द
पुनश्च--२९ अक्तूबर को हम वियना के लिए पेरिस से रवाना होंगे। अगले हफ्ते श्री
लेगेट अमेरिका जा रहे हैं। अपनी डाक के नए पते के बारे में हम डाकखाने को
सूचित करेंगे।
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
पोर्ट टिवफ़िक,
२६ नवंबर, १९००
प्रिय 'जो',
स्टीमर आने में देरी थी, अतः मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ। भगवान् को धन्यवाद है
कि आज सुबह उसने पोर्ट सईद बंदरगाह पर नहर में प्रवेश किया। इसका मतलब है कि
यदि सब कुछ ठीक रहा, तो यह शाम को किसी समय पहुंचेगा।
वाकई ये दो दिन एक प्रकार की अकेलेपन की कैद जैसे रहे हैं; और मैं अपने हृदय
को दिलासा दिए हुए हूँ।
कहावत है कि परिवर्तन मन को बहुत भाता है। श्री गेज के एजेंट ने मुझे सब गलत
निर्देश दिए। पहले तो यहाँ कोई भी मुझे कुछ बताने के लिए नहीं था, स्वागत करना
तो अलग रहा। दूसरे मुझे यह नहीं बताया गया था कि स्टीमर के लिए मुझे अपना
गेजवाला टिकट एजेंट के दफ्तर में बदलना पड़ेगा और यह कि वह दफ्तर स्वेज में
है, यहाँ नहीं।
इसलिए यह एक तरह से अच्छा ही था कि स्टीमर विलंब से आनेवाला था। अतः मैं
स्टीमर के एजेंट से मिलने गया और उसने मुझे गेज के पास को बाकायदा एक टिकट में
बदल लेने के लिए कहा।
आज रात को किसी समय मैं स्टीमर पर सवार होऊँगा। मैं कुशल से हूँ, प्रसन्न हूँ
और इस मसखरेपन का खुब आनंद ले रहा हूँ।
मादमोआजेल कैसी हैं ? बोया कहाँ हैं ? मादाम कालभे से मेरा अनंत आभार तथा शुभ
कामनाएँ कहना। वे एक भली महिला हैं। आशा है तुम अपनी यात्रा में आनंद प्राप्त
करोगी।
सस्नेह सदा तुम्हारा,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखित)
मठ, बेलड़, हावड़ा,
११ दिसंबर, १९००
प्रिय 'जो',
परसों रात को मैं यहाँ पर आ पहुँचा हूँ। किंतु खेद है, इतनी शीघ्रता से लौटने
पर भी कोई लाभ नहीं हुआ। बेचारे कैप्टन सेवियर की मृत्यु कुछ दिन पहले ही हो
चुकी है--इस प्रकार दो अंग्रेज महानुभावों ने हमारे लिए, हिंदुओं के
लिए--आत्मोत्सर्ग किया। यदि कोई शहीद हुए हों, तो ये ही हैं। श्रीमती सेवियर
को, उनके भावी कार्यक्रम जानने के लिए, अभी मैंने पत्र लिखा है।
मैं सकुशल हूँ। यहाँ का सब कुछ, सभी प्रकार से ठीक चल रहा है। व्यस्तता में
मैं यह पत्र लिख रहा हूँ--कुछ ख्याल न करना। शीघ्र ही विस्तृत पत्र दूँगा।
सदा सत्यपाशाबद्ध तुम्हारा,
विवेकानन्द
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
बेलूड़ मठ,
हावड़ा, बंगाल, भारत,
१५ दिसंबर, १९००
माँ,
तीन दिन पहले मैं यहाँ पहुँचा हूँ। यहाँ मेरा आगमन बिल्कुल अप्रत्याशित था और
सब लोग बड़े विस्मित हुए।
यहाँ काम की प्रगति मेरी अनुपस्थिति में जितनी मुझे आशा थी, उससे कहीं अधिक
हुई है। केवल श्री सेवियर अब नहीं रहे। उनकी मृत्यु निश्चय ही एक जबरदस्त चोट
थी और मैं नहीं जानता कि हिमालय के कार्य का अब क्या भविष्य है। मैं प्रतिदिन
श्रीमती सेवियर के पत्र की प्रतीक्षा करता हूँ, जो अब भी वहाँ हैं।
आप कैसी हैं ? कहाँ हैं ? मुझे आशा है मेरा मामला यहाँ शीघ्र ही व्यव स्थित हो
जाएगा और मैं उसके लिए भरसक प्रयत्न भी कर रहा हूँ।
जो रुपया आप मेरी बहन को भेजती रही हैं, उसे अब यहाँ मेरे नाम से बिल बनाकर
सीधे मेरे पास भेज दिया करें। मैं भुनाकर रुपया उसे भेज दिया करूँगा। यह अच्छा
है कि रुपया उसे मेरे मार्फत मिले।
सारदानन्द और ब्रह्मानन्द काफ़ी स्वस्थ हैं और इस वर्ष मलेरिया यहाँ बहुत कम
है। नदी-तट की यह पतली पट्टी मलेरिया से हमेशा मुक्त रहती है। पर जब हमें यहाँ
प्रचुर शुद्ध जल मिल सकेगा, तभी यहाँ की दशा में पूर्ण सुधार होगा।
आपका,
विवेकानन्द
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
मठ, बेलूड़,
हावड़ा,
१९ दिसंबर, १९०० ई०
प्रिय निवेदिता,
पृथ्वी के इस छोर से एक स्वर तुमसे यह प्रश्न कर रहा है कि 'तुम किस प्रकार
हो?' क्या इस प्रश्न से तुम आश्चर्यान्वित हो रही हो? किंतु मैं तो वास्तव में
ऋतु के साथ विचरण करनेवाला एक विहंगम हूँ।
आनंद से मुखरित तथा कर्मव्यस्त पेरिस, गंभीर प्राचीन कान्स्टांटिनोप्ल, चमकदार
छोटा ऐथेन्स, पिरामिड से सुशोभित काहिरा--इन सभी स्थलों को मैं पीछे छोड़ आया
हूँ; और अब मैं यहाँ पर, गंगातटवर्ती मठ में--अपनी छोटी सी कोठरी में बैठकर यह
पत्र लिख रहा हूँ। चारों ओर कितनी शांति एवं निस्तब्धता छायी हुई है ! विशाल
नदी उज्जवल सूर्यकिरणों में नृत्य कर रही है; कदाचित् कभी दो-एक माल ढोनेवाली
नावों के आगमन से यह स्तब्धता क्षण भर के लिए भंग होती हुई नज़र आ रही है।
यहाँ पर इस समय शीतऋतु है; किंतु प्रतिदिन का मध्याह्न उज्जवल तथा गरम है। यह
दक्षिणी कैलिफ़ोर्निया के जाड़े के समान है। चारों ओर हरित् तथा स्वर्ण वर्ण
का बाहुल्य है; और तृणराजि मानो मखमल सदृश शोभायमान है। फिर भी वायु शीतल,
स्वच्छ तथा सुखप्रद है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
मठ, बेलूड़,
२६ दिसंबर,१९००
प्रिय शशि,
तुम्हारा पत्र पढ़कर सभी संवादों से अवगत हुआ। यदि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक
नहीं, तो तुम्हारा यहाँ आना कदापि उचित न होगा। और मैं भी कल मायावती जा रहा
हूँ। वहाँ एक बार मेरा जाना अत्यंत आवश्यक है।
आलासिंगा यदि आए तो उसे मेरी प्रतीक्षा करनी होगी। कनाई के संबंध में इन लोगों
ने क्या तय किया है--मैं नहीं जानता। मैं अल्मोड़ा से शीघ्र ही लौटूंगा, उसके
बाद मद्रास जा सकता हूँ। बनियमबाडी से एक पत्र आया है। उन्हें मेरा प्यार और
आशीर्वाद देते हुए एक पत्र लिखो और यह सूचित कर दो कि मद्रास जाते समय मैं
अवश्य वहाँ आऊँगा। सभी को मेरा प्यार। तुम बहुत परिश्रम मत करो। यहाँ और सब
ठीक है।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखित)
मठ, बेलूड, हावड़ा,
२६ दिसंबर, १९००
प्रिय 'जो',
आज की डाक से तुम्हारा पत्र मिला। उसके साथ ही माता जी तथा अल्बर्टी के पत्र
भी प्राप्त हुए। अल्बर्टा के पंडित मित्र ने रूस के संबंध में जो कुछ कहा है,
वह प्रायः मेरी धारणा के अनुरूप ही है। उनकी विचारधारा में केवल एक स्थल पर
कठिनाई दिखायी दे रही है -- और वह यह है कि समग्र हिंदू जाति के लिए एक साथ
रूसी भावना को अंगीकार करना क्या संभव है ?।
हमारे प्रिय मित्र श्री सेवियर मेरे पहुँचने के पहले ही परलोक सिधार चुके हैं।
उनके द्वारा स्थापित आश्रम के किनारे से जो नदी प्रवाहित है, उसीके तट पर
हिंदू रीति से उनका अंतिम संस्कार किया गया है। ब्राह्मणों ने पुष्पमाल्यशोभित
उनकी देह को वहन किया था एवं ब्रह्मचारियों ने वेदपाठ किया था।
हम लोगों के आदर्श के लिए इस बीच में दो अंग्रेजों ने आत्मोत्सर्ग किया। इसके
फलस्वरूप प्राचीन इंग्लैंड तथा उसकी वीर संतानें मेरे लिए और भी प्रिय हो चुकी
हैं। इंग्लैंड की सर्वोत्तम रुधिरधारा से महामाया मानो भावी भारत के पौधे को
सींच रही हैं--महामाया की जय हो!
प्रिय श्रीमती सेवियर विचलित नहीं हुई हैं। पेरिस के पते से उन्होंने मझे जो
पत्र लिखा था, वह इस डाक से आज मुझे प्राप्त हुआ। उनसे मिलने के लिए कल मैं
पहाड़ की ओर रवाना हो रहा हूँ। भगवान् हम लोगों की इस प्रिय साहसी महिला को
आशीर्वाद प्रदान करें।
मैं स्वयं दृढ़ तथा शा त हूँ। आज तक कोई भी घटनाचक्र मुझे विचलित नहीं कर सका
है; आज भी महामाया मुझे खिन्न न होने देंगी।
शीत ऋतु के आगमन के साथ ही साथ यह स्थान अत्यंत सुखप्रद हो उठा है। बर्फ के
आवरण से अनाच्छादित हिमालय और भी सुंदर हो उठेगा।
श्री जान्स्टन नामक जो युवक न्यूयार्क से रवाना हुआ था, उसने ब्रह्मचर्य व्रत
धारण किया है तथा इस समय वह मायावती में है।
सारदानन्द के नाम से रुपये मठ में भेज देना, क्योंकि मैं पहाड़ की ओर जा रहा
हूँ।
अपनी शक्ति के अनुसार उन लोगों ने अच्छा ही कार्य किया है। तदर्थ मुझे खुशी है
और मैंने अपनी स्नायविक दुर्बलतावश पहले जो असन्तोष प्रकट किया था, वह मेरी ही
मूर्खता थी। वे लोग सदा की तरह सज्जन तथा विश्वासपात्र हैं एवं उन लोगों का
शरीर भी स्वस्थ है।
श्रीमती बुल को यह समाचार देना तथा कहना कि उन्होंने हमेशा ठीक ही कहा है और
मुझसे ही भूल हुई है। इसलिए मैं सहस्र बार उनसे क्षमा प्रार्थना कर रहा हूँ।
उनको तथा एम्--को मेरा असीम स्नेह कहना।
देखता हूँ, जब मैं आगे-पीछे,
प्रतीत होता है, सब कुछ ठीक।
मेरे गहनतम दुःखों के मध्य,
रहना आत्मा का सदा प्रकाश।
एम्--को, श्रीमती सि-को तथा प्रिय जूल बोया को मेरा अनंत स्नेह ज्ञापन करना।
प्रिय 'जो', तुम मेरा प्रणाम ग्रहण करना।
विवेकानन्द
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
मायावती, हिमालय,
६ जनवरी, १९०१
प्रिय धीरा माता,
डॉक्टर बोस ने आपके मार्फत जो 'नारदीय सूक्त' भेजा था, मैं अभी उसका अनुवाद
भेज चुका हूँ। जहाँ तक संभव हो सका है, मैंने अक्षरशः अनुवाद करने की चेष्टा
की है। आशा है कि डॉक्टर बोस अब तक पूर्ण स्वस्थ हो चुके होंगे।
श्रीमती सेवियर बहुत ही दृढ़ संकल्पशालिनी महिला हैं तथा उन्होंने अत्यंत
शांति तथा सबल चित्त से इस शोक को सहन किया है। आगामी अप्रैल में वे इंग्लैंड
जा रही हैं एवं मैं भी उनके साथ रवाना हो रहा हूँ।...
यह स्थान अत्यंत सुंदर है एवं इन लोगों ने इसे और भी मनोरम बनाया है।...
भवदीय चिरस्नेहाबद्ध संतान,
विवेकानन्द
पुनश्च--काली माँ दो बलि ग्रहण कर चुकी हैं; उद्देश्य-साधन में दो यूरोपीय
शहीदों ने आत्मोत्सर्ग किया है--अब कार्य सुंदर रूप से अग्रसर होता रहेगा।
(श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित)
मायावती, हिमालय,
१५ जनवरी, १९०१
प्रिय स्टर्डी,
सारदानन्द से मुझे यह समाचार मिला कि इंग्लैंड के कार्य के लिए जो १,५२९१५ पाई
की धनराशि थी, उसे तुमने मठ में भेज दिया है। यह निश्चित है कि उसका उपयोग
अच्छे ही कार्य में होगा।
प्रायः तीन महीने पूर्व कैप्टन सेवियर ने अपना शरीर छोड़ा है। उन लोगों ने इस
पर्वत के ऊपर एक सुंदर आश्रम की स्थापना की है; और श्रीमती सेवियर इसको कायम
रखना चाहती हैं। मैं यहाँ उनसे मिलने आया हूँ एवं संभवतः उन्हींके साथ
इंग्लैंड जा सकता हूँ।
मैंने पेरिस से तुमको एक पत्र लिखा था, शायद वह तुम्हें प्राप्त नहीं हुआ है।
श्रीमती स्टर्डी के शरीरान्त के समाचार से मुझे अत्यंत कष्ट हुआ। वे एक साध्वी
पत्नी तथा स्नेहमयी माता थों; जीवन में इस प्रकार की महिला प्रायः दिखायी नहीं
देती।
यह जीवन घात-प्रतिघातों से भरा हुआ है; किंतु उस आघात की वेदना जैसे भी हो दूर
हो ही जाती है-- इतनी ही सांत्वना है।
तुमने अपने विगत पत्र में अपनी मानसिक भावनाएँ स्पष्ट रूप से प्रकट की हैं,
इसलिए मैंने पत्र लिखना छोड़ दिया है -- यह बात नहीं है। मैं केवल वर्तमान
तरंग के निकल जाने की प्रतीक्षा कर रहा था -- यही मेरी रीति है। पत्र के जवाब
देने से राई का पहाड़ बन जाता।
श्रीमती जॉन्सन तथा अन्यान्य मित्रों से भेंट होने पर कृपया उनसे मेरी श्रद्धा
तथा स्नेह कहना।
चिरसत्याबद्ध तुम्हारा,
विवेकानन्द
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
बेलूड़ मठ,
हावड़ा ज़िला, बंगाल,
२६ जनवरी, १९०१
प्यारी माँ,
उत्साहित करने वाले इन शब्दों के लिए आपको अनेकानेक धन्यवाद। मुझे इस समय उनकी
बहुत आवश्यकता है। नयी शताब्दी के आगमन से अंधकार दूर नहीं हुआ है, बल्कि और
भी घना होता जा रहा है। मैं श्रीमती सेवियर से मिलने मायावती गया था। राह में
ही खेतड़ी के महाराजा की मृत्यु का संवाद मिला। सुना है कि वे आगरे में किसी
स्थापत्य-स्मारक की मरम्मत अपने खर्च से करवा रहे थे। और इसी सिलसिले में किसी
गुंबद का निरीक्षण कर रहे थे। गुंबद का एक हिस्सा नीचे गिर पड़ा और उनकी
तत्काल मृत्यु हो गई।
तीनों चेक आ गए हैं। जब मैं अपनी बहन से मिलँगा, उसे दे दूँगा:
'जो' यहीं है, लेकिन अब तक मेरी मुलाकात नहीं हुई है।
बंगाल की धरती पर, खास कर मठ में, पैर रखते ही मेरे दमा का दौरा फिर शुरू हो
जाता है। बंगाल छोड़ा और फिर स्वस्थ !
अगले सप्ताह मैं अपनी माँ को तीर्थयात्रा पर ले जा रहा हूँ। तीर्थस्थानों की
परिक्रमा करने में--संभव है महीनों लग जाएं। यह, हिंदू विधवाओं की महान लालसा
होती है। मैंने अपने स्वजन-परिजन के लिए सदा दुःख ही बटोरा। मैं कम से कम उनकी
इस इच्छा को पूर्ण करने की चेष्टा कर रहा हूँ।
मार्गट का समाचार सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। यहाँ सभी फिर से उसका स्वागत करने
को इच्छुक हैं। आशा है डाक्टर बोस अब तक पूर्ण स्वस्थ हो चुके होंगे।
मुझे श्रीमती हैम्मॉण्ड की एक बहुत प्यारी चिट्ठी मिली है। महान आत्मा हैं,
वह।
बहरहाल, मैं इस बार बहुत शांत और अविक्षुब्ध हूँ और देखता हूँ कि सभी बातें
आशा से अधिक ठीक हैं। प्यार के साथ--
सदैव तुम्हारा पुत्र,
विवेकानन्द
(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
मठ, बेलूड़,
प्रिय शशि,
बस इतना समझ लो कि मैं अपनी माँ के साथ रामेश्वरम् जा रहा हूँ। मैं मद्रास जा
भी सकूँगा या नहीं, मुझे नहीं मालम। यदि गया तो यह बिल्कुल व्यक्तिगत मामला
होगा। मेरा तन और मन बुरी तरह थक चुका है, और मैं किसी की भी उपस्थिति सहन
नहीं कर सकता। मैं अपने साथ किसी को नहीं चाहता। न तो मेरे पास शक्ति है, न
पैसा और न इच्छा ही कि मैं किसी को अपने साथ ले जा सकूँ। फिर वे चाहे गुरु
महाराज के भक्त-जन हों या कोई और, इससे अंतर नहीं पड़ता। इस संबंध में
तुम्हारी जिज्ञासा भी सरासर मूर्खता थी। मैं तुमसे फिर कहता हूँ, मैं जीवित की
अपेक्षा मरा हुआ अधिक हूँ और किसी से मिलना मुझे कतई स्वीकार नहीं। यदि तुम
वैसा प्रबंध नहीं कर सकते, तो मैं मद्रास नहीं जाता। अपने शरीर की रक्षा के
लिए मुझे कुछ न कुछ तो स्वार्थी बनना ही पड़ेगा।
योगीन माँ और दूसरे लोग जो चाहें उन्हें करने दो। अपने वर्तमान स्वास्थ्य को
देखते हुए मैं किसी को भी अपने साथ नहीं ले जा सकता।
सस्नेह,
विवेकानन्द
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
बेलूड़ मठ,
हावड़ा, बंगाल,
२ फरवरी, १९०१
प्रिय माँ,
कई दिन हुए मुझे आपका पत्र और उसके साथ १५० रु० का एक चेक मिला था। मैं इस चेक
को भी पिछले तीन चेकों की भाँति अपने भाई को सुपुर्द कर दूँगा।
'जो' यहाँ है, मैं उससे दो बार मिला हूँ। वह लोगों से मिलने-मिलाने में व्यस्त
है। श्रीमती सेवियर के इंग्लैंड से होकर यहाँ शीघ्र आने की आशा है। मैं पहले
उन्हीं के साथ इंग्लैंड जानेवाला था, लेकिन अब जैसी कि स्थिति हो गई है, मुझे
अपनी माँ के साथ एक लंबी तीर्थयात्रा के लिए निकलना होगा।
बंग-भूमि का स्पर्श करते ही मेरी तंदुरुस्ती गिरने लगती है; खैर, अब मैं इसकी
चिंता नहीं करता। मैं और मेरा काम-धाम सब ठीक-ठाक चल रहा है।
मार्गट के सफल होने की बात जानकर प्रसन्नता हुई, लेकिन, जैसा कि 'जो' ने लिखा
है, वह आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद सिद्ध नहीं हो रहा है,--बस यही तो कुल
गड़बड़ी है। काम को चलाते भर जाना कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं, और फिर इतनी दूर
लंदन के काम से कलकत्ता पर क्या असर पड़ता है ? खैर, जगन्माता सब कुछ जानती
हैं। मार्गट रचित 'काली माता' (Kali, the Mother) की सब प्रशंसा कर रहे हैं,
किंतु खेद की बात है कि उन्हें पुस्तक उपलब्ध नहीं हो पाती-- बुकसेलर लोग
किताब की बिक्री के प्रति इस हद तक उदासीन हैं !
इस नूतन शताब्दी में आप और आपके प्रियजन एक और महान भविष्य के लिए स्वास्थ्य
तथा साधन प्राप्त करें, यही मेरी सतत प्रार्थना है।
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
वेलूड़ मठ, हावड़ा,
१४ फ़रवरी, १९०१
प्रिय 'जो'
मुझे यह सुनकर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि बोया कलकत्ता आ रहे हैं। उन्हें तुरन्त
मठ भेजो। मैं यहीं रहूँगा। यदि संभव हुआ तो मैं उन्हें कुछ दिन अपने पास यहाँ
रखूगा और फिर नेपाल जाने दूँगा।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
बेलूड़ मठ,
हावड़ा, बंगाल,
१७ फ़रवरी, १९०१
प्रिय 'जो'
अभी अभी तुम्हारा लंबा सा पत्र मिला। मुझे प्रसन्नता है कि तुम कुमारी
कार्नेलिया सोराबजी से मिली और तुम्हें वे पसंद आयीं। मैं पूना में उनके पिता
से परिचित था, उनकी एक छोटी बहन को भी जानता हूँ जो अमेरिका में थी। उनकी माता
जी को शायद उस संन्यासी के रूप में मेरी याद हो, जब मैं पूना में लिम्बडी के
ठाकुर साहब के साथ रहा करता था।
मुझे आशा है कि तुम बड़ौदा जाओगी और वहाँ की महारानी से मिलोगी।
मैं अपेक्षतः काफ़ी स्वस्थ हूँ और आशा है कुछ समय तक ऐसा ही रहूँगा। मुझे अभी
ही श्रीमती सेवियर का एक प्यारा सा पत्र मिला है, जिसमें उन्होंने तुम्हारे
बारे में ढेरों अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं।
मुझे प्रसन्नता है कि तुम श्री टाटा से मिलीं और तुम्हें वे दृढ़ और भले आदमी
प्रतीत हुए।
यदि मैंने अपने को काफ़ी सशक्त अनुभव किया, तो अवश्य ही बंबई आने का निमंत्रण
स्वीकार कर लूँगा।
कोलंबो जानेवाले अपने स्टीमर का नाम तार से लिख भेजो। प्यार के साथ,
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
ढाका,
२९ मार्च, १९०१
प्रिय माँ,
इस समय तक तुम्हें मेरा ढाका से लिखा दूसरा पत्र मिल गया होगा। सारदानन्द
कलकत्ता में ज्वर से बुरी तरह ग्रस्त हो गया था। कलकत्ता तो इस वर्ष नरक बन
गया है। वह अच्छा हो गया है, अब मठ में है। ईश्वर की कृपा से मठ हमारी
बंग-भूमि के स्वस्थतम स्थानों में से है।
मैं नहीं जानता कि आप और मेरी माँ के बीच क्या बातचीत हुई। उस समय मैं नहीं
था। मेरा अनुमान है कि माँ ने आपसे मार्गट को देखने की इच्छा प्रदर्शित की
होगी और कुछ नहीं।
मार्गट को मेरी यह सलाह है कि वह इंग्लैंड में रहकर अपनी योजनाओं को पक्का करे
और काफी हद तक उन्हें क्रियान्वित भी करे, तब कहीं लौटने की बात सोचे। भले और
ठोस काम के लिए प्रतीक्षा तो करनी ही पड़ती है।
आवश्यक शक्ति प्राप्त करते ही सारदानन्द श्रीमती बनर्जी के पास, जो कुछ दिन के
लिए कलकत्ता आयी थीं, दार्जिलिंग जाना चाहता है।
जापान से 'जो' के बारे में मुझे कोई खबर नहीं मिली। श्रीमती सेवियर शीघ्र ही
वहाँ जानेवाली हैं। करीब पाँच दिन से ऊपर हुए मेरी माँ, चाची और भाई ढाका आए
थे--ब्रह्मपुत्र नदी का बड़ा भारी स्नान-पर्व पड़ा था। जब भी कभी ग्रहों का
कोई विशिष्ट एवं दुर्लभ संयोग उपस्थित होता है, तब बड़ा भारी जन समुदाय नदी के
किसी खास स्थान पर एकत्र हो जाता है। इस वर्ष लक्षाधिक लोगों की भीड़ हुई थी,
मीलों तक नदी में केवल नावें ही नावें दिखायी पड़ती थीं।
यद्यपि नदी का पाट इस स्थान पर लगभग एक मील चौड़ा है, फिर भी वह कीचड़ से भर
गया था। लेकिन जमीन फिर भी काफ़ी ठोस रही और इसलिए हम अपना पूजा-स्नान आदि
संपन्न कर सके।
ढाका मुझे अच्छा लग रहा है। मैं अपनी माँ तथा अन्य महिलाओं को चंद्रनाथ ले जा
रहा हूँ। यह स्थान बंगाल के बिल्कुल पूर्वी सिरे पर है।
मैं सकुशल हूँ, आशा है आप, आपकी पुत्री तथा मार्गट भी स्वस्थ
सानन्द हैं।
चिरस्नेह के साथ
आपका पुत्र,
विवेकानन्द पुनश्च--मेरी माँ तथा भाई आपको और मार्गट को प्यार भेजते हैं। मुझे
तारीख नहीं मालूम।
(स्वामी स्वरूपानन्द को लिखित)
मठ,
१५ मई, १९०१
प्रिय स्वरूप,
नैनीताल से लिखा हुआ तुम्हारा पत्र विशेष उत्तेजनापूर्ण है। पूर्वी बंगाल तथा
आसाम का दौरा कर हाल ही में लौटा हूँ। पहले की तरह अब की बार भी मैं अत्यंत
परिश्रांत हो चुका हूँ तथा मेरा स्वास्थ्य भग्न हो चुका है।
बड़ौदा महाराज से मिलने पर यदि वास्तव में कोई कार्य संपन्न होने की संभावना
हो, तो मैं वहाँ जाने के लिए प्रस्तुत हूँ; अन्यथा यातायात के परिश्रम तथा
व्यर्थ के खर्चे में मैं पड़ना नहीं चाहता। अतः महाराज के साथ मिलने से हमारे
कार्य में किसी प्रकार की सहायता मिल सकती है या नहीं--इस बारे में अच्छी तरह
से सोच-विचारकर तथा आवश्यक समाचारादि लेकर तुम अपनी राय मुझे सूचित करना। अभी
अभी श्रीमती सेवियर का एक अच्छा सा पत्र मुझे मिला। अमरनाथ तथा नैनीताल के सब
मित्रों से मेरा स्नेह कहना। तुम मेरा स्नेह तथा आशीर्वाद जानना। इति।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
बेलूड़ मठ,
हावड़ा, बंगाल (भारत)
१८ मई, १९०१
प्रिय मेरी,
कभी-कभी किसी बडे नाम के साथ पुछल्ले की तरह लग जाने से बड़ी कठिनाई हो जाती
है और यही तो मेरे पत्र के साथ हुआ! तुमने मुझे २२ जनवरी १९०१ को पत्र लिखा
था, पर पता दिया महान कुमारी मैक्लिऑड का। परिणाम यह हुआ कि वह पत्र उनके पीछे
पीछे सारी दुनिया की खाक छानता रहा और अब कल जापान से भेजा जाकर मुझे मिला है,
जहाँ कि आजकल कुमारी मैक्लिऑड हैं। तो इस तरह स्फिक्स की उस पहेली का उत्तर
हुआ : 'तू किसी बड़े नाम के साथ छोटे नाम को नहीं जोड़ेगा।'
तो मेरी तुम फ़्लोरेंस और इटली में मौज करती रहीं, और मुझे पता भी नहीं कि तुम
इस समय हो कहाँ। अच्छा, मोटी वृद्धा 'महिला', यह पत्र में मोनरो एंड कंपनी, ७
रू स्क्राइब के पते पर तुम्हें भेज रहा हूँ।
तुम फ्लोरेंस और इटली की झीलों में समय गुजार रही हो। बहुत अच्छा। यद्यपि
तुम्हारा कवि उसे निरर्थक मानने में आपत्ति करता है।
प्यारी बहन, कुछ अपने बारे में भी बताऊँ ? भारत मैं पिछली शिशिर ऋतु में आया
था। तमाम जाड़े कष्ट भोगता रहा और इसी ग्रीष्म में पूर्वी बंगाल और आसाम के
दौरे पर निकल गया। ये इलाके विशालकाय नदियों और पहाड़ियों और मलेरिया से
परिपूर्ण हैं। दो महीने के कठिन परिश्रम से बीमार पड़ गया और अब कलकत्ता वापस
आ गया हूँ, जहाँ धीरे-धीरे मेरा स्वास्थ्य सुधर रहा है।
कुछ महीने हुए खेतड़ी के राजा की गिर पड़ने से मृत्यु हो गई। इस तरह तुम देखती
हो कि मेरे चारों ओर इस समय अँधेरा ही अंधेरा है, मेरा अपना स्वास्थ्य भी चौपट
है। फिर भी मुझे पूरा विश्वास है कि शीघ्र ही मैं पुन: उठ खड़ा होऊँगा। बस मैं
अगले सुअवसर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
काश इस समय मैं यूरोप आ सकता तो तुमसे खूब बातें हो सकती; पर मैं जल्दी ही
भारत वापस लौट जाता, क्योंकि इन दिनों एक प्रकार की शांति तो मैं महसूस ही कर
रहा हूँ और मेरी बेचैनी भी अधिकांशतः दूर हो चुकी है।
हैरियट ऊली, ईसाबेल, हैरियट मैक्किडली को मेरा प्यार कहना और माँ से मेरा चिर
प्रेम एवं कृतज्ञता ज्ञापित करना। माँ से कहना कि एक हिंदू की सूक्ष्म
कृतज्ञ-भावना पीढ़ियों तक बनी रहती है।
भगवद्पदाश्रित तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च--जब तुम्हारी इच्छा हो मुझे पत्र लिखो।
. .
(स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)
मठ, वेलूड़, हावड़ा,
३ जून, १९०१
कल्याणीया,
तुम्हारे पत्र को पढ़कर हँसी भी आयी और कुछ दुःख भी हुआ। हँसी का कारण यह है
कि बदहजमी के फलस्वरूप कोई स्वप्न देखकर उसे सत्य समझते हुए तुमने स्वयं को
दुःखी बनाया है; तुमको उससे दुःख हुआ, यह इसी से स्पष्ट है कि तुम्हारा शरीर
ठीक नहीं है--तुम्हारी स्नायुओं के लिए विश्राम लेना परम आवश्यक है।
मैंने कभी भी तुमको अभिशाप नहीं दिया है, फिर आज क्यों देने लगा? आज तक मेरे
प्यार का परिचय पाने के बाद क्या तुम लोगों को अब अविश्वास होने लगा? यह ठीक
है कि मेरा मिजाज हमेशा से ही तेज़ है, खासकर आजकल बीमारी में वह कभी-कभी बहुत
ही भयंकर हो उठता है किंतु तुम यह निश्चित जानना कि मेरा प्यार कभी नष्ट होने
का नहीं है।
इस समय मेरा शरीर कुछ ठीक चल रहा है। मद्रास में क्या वर्षा शुरू हो गई है ?
दक्षिण में वर्षा प्रारंभ होते ही संभवतः बंबई तथा पूना होता हुआ मैं मद्रास
पहुँचूँगा। वर्षा प्रारंभ होते ही मैं समझता हूँ मद्रास की प्रचंड गर्मी भी घट
जाएगी।
सबसे मेरा हार्दिक स्नेह कहना तथा तुम स्वयं भी ग्रहण करना।
शरत् कल दार्जिलिंग से मठ आ पहुँचा है--उसका शरीर भी पहले से बहुत कुछ अच्छा
है। पूर्वी बंगाल तथा आसाम का दौरा कर मैं भी यहाँ आ पहुँचा हूँ। सभी कार्यों
में उतार-चढ़ाव होता है--उसमें कभी तीव्रता आती है, कभी शिथिलता। सक्रियता
आएगी। भय की क्या बात है ? ...
अस्तु, मैं चाहता हूँ कि कुछ दिन के लिए काम-काज बंद कर तुम सीधे मठ चले
आओ--यहाँ पर महीने भर विश्राम करने के बाद हम दोनों साथ साथ एक महाभ्रमण
प्रारंभ कर देंगे। गुजरात, बंबई, पूना, हैदराबाद, मैसूर होते हुए मद्रास तक।
क्या यह अति सुंदर न होगा? यदि यह संभव न हो, तो कम से कम मद्रास का 'लेक्चर'
इस समय महीने भर के लिए स्थगित कर दो--थोड़ा खाओ-पिओ और सुख की नींद सोओ।
दो-तीन महीने के अंदर ही मैं वहाँ आ रहा हूँ। अस्तु, पत्र के मिलते ही इस बारे
में विचार-विमर्श कर अपना निर्णय लिखना। इति।
साशीर्वाद,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैविलऑड को लिखित)
मठ, बेलूड़, हावड़ा,
१४ जून, १९०१
प्रिय 'जो',
तुम जापान पहुँचकर, खासकर जापानी ललितकला देखकर अत्यंत आनंदित हो रही हो, यह
जानकर मुझे खुशी हुई। तुम्हारा यह कहना यथार्थ में सत्य है कि हमें जापान से
बहुत कुछ सीखना होगा। जापान हमें जो कुछ सहायता प्रदान करेगा, वह अत्यंत
सहानुभूतिपूर्ण तथा श्रद्धा से ओत-प्रोत होगी; परंतु पाश्चात्य सहायता का रूप
सहानुभूतिरहित तथा अभावात्मक होगा। जापान तथा भारत के बीच संबंध स्थापित होना
नितांत वांछनीय है।
अपने बारे में मुझे यह कहना पड़ेगा कि आसाम जाकर मुझे विपदग्रस्त होना पड़ा
था। मठ की आबहवा में मैं कुछ स्वस्थ होता जा रहा हूँ। आसाम के शैल निवास,
शिलांग में मुझे ज्वर होने लगा था तथा श्वास की बीमारी एवं 'एलबुमिन' की
शिकायत बढ़ गई थी और मेरा शरीर फूलकर प्रायः दुगुना हो गया था। मठ में आते ही
ये सारी शिकायतें घट चुकी हैं; इस वर्ष भयानक गर्मी है, किंतु सामान्य रूप से
वर्षा शुरू हुई है और हमें आशा है कि शीघ्र ही मौसमी वर्षा जोरों से प्रारंभ
होगी। इस समय मेरी कोई योजना नहीं है; किंतु बंबई प्रदेश से ऐसा आग्रहपूर्ण
आमंत्रण मिल रहा है कि शीघ्र ही संभवतः एक बार मुझे वहाँ जाना पड़ेगा। ऐसा
विचार है कि एक सप्ताह के अंदर ही हम लोग बंबई-भ्रमण प्रारंभ कर देंगे।..
वह गरीब आदमी, अपनी पत्नी एवं बच्चों के यूरोप रवाना हो जाने के बाद आपदग्रस्त
हो गया, और उसने मिलने के लिए मुझे आमंत्रित किया था; परंतु मैं इतना बीमार
हूँ एवं शहर में जाने से इतना डरता हूँ कि मुझे तब तक प्रतीक्षा करनी होगी, जब
तक वर्षा न प्रारंभ हो जाए।
प्रिय 'जो', यह तुम ही विचार करो कि यदि मुझे जापान जाना पड़े, तो कार्य
संचालन के लिए अब की बार सारदानन्द को अपने साथ ले जाना आवश्यक है। इसके अलावा
लि हूँ चंग के नाम श्रीमती मैक्सिन ने जो पत्र देने के लिए कहा था, मुझे उसकी
आवश्यकता है। फिर भी माँ ही सब कुछ जानती हैं--मैंने अभी तक कुछ तय नहीं किया
है।
तो क्या तुम भविष्यवक्ता से भेंट करने के लिए एलनक्विनन तक गई थीं ? क्या अपनी
शक्ति से उसने तुम्हें आश्वस्त कर दिया? उसने क्या कहा ? अगर हो सके, तो पूरे
तौर पर लिखना।
जूल बोया लाहौर तक पहुँचा, चूंकि नेपाल में जाने से वह रोक दिया गया। पत्रों
से मुझे मालूम हुआ कि वह गर्मी नहीं बरदाश्त कर सका और बीमार पड़ गया; तब उसने
समुद्र-यात्रा में जहाज का सहारा लिया। मठ में मिलने के बाद उसने मेरे पास एक
पंक्ति भी नहीं लिखी। तुम भी श्रीमती बुल को जापान से नार्वे तक घसीटने के लिए
आतुर हो--निश्चित ही तुम एक शक्तिशालिनी जादूगर हो। हाँ 'जो' अपने स्वास्थ्य
को ठीक रखो एवं उत्साह बनाए रखो। एलनक्विनन के आदमी के शब्द अधिकतर सत्य होते
हैं। गौरव एवं सम्मान तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं--एवं मुक्ति भी। महिलाएँ
स्वभावतः ही विवाह के द्वारा अपने जीवन की सारी वासनाएँ पूर्ण करना चाहती हैं;
वे किसी पुरुष को (लता की तरह) पकड़कर उठना चाहती हैं। किंतु वे दिन समाप्त हो
चुके हैं। तुम ठीक जिस प्रकार हो--सरल स्वभाव तथा स्नेहमयी 'जो', हमारी घनिष्ठ
तथा सदा की 'जो'-~~-ठीक उसी प्रकार रहकर ही तुम बढ़ती रहोगी और 'महामहिमामयी
श्रीमती' आदि व्यर्थ की उपाधियाँ तुम्हारे लिए आवश्यक न होंगी, यहाँ तक कि
रूसदेशीय स्वाभाविक उपाधियाँ भी नहीं।
हमें अपने जीवन में इतना अनुभव प्राप्त हुआ है कि अब हम लोग जल के बुद्बुद् के
समान इन उपाधियों के द्वारा आकृष्ट नहीं होते--'जो', क्या यह सच नहीं है? कुछ
महीनों से मैं सारी भावुकताओं को दूर कर देने की साधना में मग्न हूँ; अतः यहाँ
ही मैं रुक जाना चाहता हूँ। अब मैं बिदा चाहता हूँ। माँ का यही निर्देश है कि
हम लोग एक साथ कार्य करेंगे। इससे अब तक बहुत लोग उपकृत हुए हैं एवं भविष्य
में भी होंगे तथा और भी सभी लोग उपकृत होते रहें। अपने मतलब की ओर ध्यान रखकर
कार्य करना व्यर्थ है, ऊँची कल्पनाएँ भी व्यर्थ ही हैं ! माँ अपने मार्ग की
व्यवस्था स्वयं कर लेंगी। फिर भी उन्होंने तुम्हें तथा मुझे एक साथ इस संसार
समुद्र में डाल दिया है, इसलिए एक साथ ही हमें तैरना अथवा डूबकर मरना होगा; और
तुम यह निश्चित जानना कि उसमें कोई भी बाधा नहीं पहुँचा सकता।
मेरा आंतरिक स्नेह तथा आशीर्वाद जानना।
सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च--अभी अभी ओकाकुरा से ३०० रुपये का एक 'चेक' तथा आमंत्रण-पत्र मिला। यह
अत्यंत लाभजनक है किंतु फिर भी माँ ही सब कुछ जानती हैं।
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
बेलूड़ मठ,
१८ जून, १९०१
प्रिय 'जो',
मैं इस पत्र के साथ ही श्री ओकाकुरा के रुपये के पहुँच की रसीद भेज रहा हूँ।
मैं तुम्हारी सब चालाकियाँ समझता हूँ। फिर भी मैं आने की भरसक चेष्टा कर रहा
हूँ, हालाँकि तुम तो जानती हो कि एक महीना जाने में और एक महीना वापस आने में
ही लग जाते हैं और वह भी केवल चंद दिनों के आवास के लिए। खैर चिंता न करो, मैं
पूरी कोशिश कर रहा हूँ। मेरे अत्यधिक गिरे हुए स्वास्थ्य और कुछ कानूनी मामलों
आदि के कारण थोड़ी देर अवश्य हो सकती है।
चिरस्नेहाबद्ध,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
मठ, बेलूड़, हावड़ा,
बंगाल, भारत
प्रिय 'जो',
तुम्हारे जिस महान ऋण से मैं ऋणी हूँ, उसे चुकाने की कल्पना तक मैं नहीं कर
सकता। तुम कहीं भी क्यों न रहो, मेरी मंगलकामना करना तुम कभी भी नहीं भूलती
हो। और तुम्हीं एकमात्र ऐसी हो, जो इन तमाम शुभेच्छाओं से ऊँची उठकर मेरा
समस्त बोझ अपने ऊपर लेती हो तथा मेरे सब प्रकार के अनुचित आचरणों को सहन करती
हो।
तुम्हारे जापानी मित्र ने बहुत ही दयालुतापूर्ण व्यवहार किया है; किंतु मेरा
स्वास्थ्य इतना खराब है कि मुझे यह डर है कि जापान जाने का समय मैं नहीं निकाल
सकूँगा। कम से कम केवल अपने गुणग्राही मित्रों के समाचार जानने के लिए मुझे एक
बार बंबई प्रेसीडेंसी होकर गुजरना पड़ेगा।
इसके अलावा जापान यातायात में भी दो महीने बीत जाएंगे, केवल एक महीना वहाँ पर
रह सकूँगा; कार्य करने के लिए इतना सीमित समय पर्याप्त नहीं है- तुम्हारा क्या
मत है ? अतः तुम्हारे जापानी मित्र ने मेरे मार्गव्यय के लिए जो धन भेजा है,
उसे तुम वापस कर देना; नवंबर में जब तुम भारत लौटोगी, उस समय मैं उसे चुका
दूँगा।
आसाम में मुझ पर पुनः मेरे रोग का भयानक आक्रमण हुआ था; क्रमशः मैं स्वस्थ हो
रहा हूँ। बंबई के लोग मेरी प्रतीक्षा कर हैरान हो चुके हैं; अबकी बार उनसे
मिलने जाना है।
इन सब कारणों के होते हुए भी यदि तुम्हारा यह अभिप्राय हो कि मेरे लिए जाना
उचित है, तो तुम्हारा पत्र मिलते ही मैं रवाना हो जाऊँगा।
लंदन से श्रीमती लेगेट ने एक पत्र लिखकर यह जानना चाहा है कि उनके भेजे हुए
३०० पौंड मुझे प्राप्त हुए हैं अथवा नहीं। उनका भेजा हुआ धन यथासमय मुझे
प्राप्त हुआ है तथा पूर्व निर्देश के अनुसार एक सप्ताह अथवा उससे भी पहले
'मोनरो एंड कंपनी, पेरिस'--इस पते पर मैंने उनको सूचित कर दिया है।
उनका जो अंतिम पत्र मुझे प्राप्त हुआ है, उस लिफाफे को न जाने किसने अत्यंत
भद्दे तरीके से फाड़ दिया है। भारतीय डाक विभाग मेरे पत्रों को थोड़ी शिष्टता
के साथ खोलने का प्रयास भी नहीं करता!
तुम्हारा चिरस्नेहशील,
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
मठ,
५ जुलाई, १९०१
प्रिय मेरी,
मैं तुम्हारे लम्बे प्यारे पत्र के लिए अत्यंत कृतज्ञ हूँ, क्योंकि इस समय
मुझे किसी ऐसे ही पत्र की जरूरत थी, जो मेरे मन को थोड़ा प्रोत्साहन दे सके।
मेरा स्वास्थ्य बहुत खराब रहा है और अभी है भी। मैं केवल कुछ दिनों के लिए
सँभल जाता हूँ, इसके बाद फिर ढह पड़ना जैसे अनिवार्य हो जाता है। खैर, इस रोग
की प्रकृति ही ऐसी है।
काफी पहले मैं पूर्वी बंगाल और आसाम में भ्रमण करता रहा हूँ। आसाम काश्मीर के
बाद भारत का सबसे सुंदर प्रदेश है, लेकिन साथ ही बहुत अस्वास्थ्यकर भी है।
पर्वतों और गिरि श्रृंखलाओं में चक्कर काटती हुई विशाल ब्रह्मपुत्र--जिसके बीच
बीच में अनेक द्वीप हैं, बस देखने ही लायक है।
तुम तो जानती ही हो कि मेरा देश नद-नदियों का देश है। किंतु इसके पूर्व इसका
वास्तविक अर्थ मैं नहीं जानता था। पूर्वी बंगाल की नदियाँ नदियाँ नहीं, मीठे
पानी के घुमड़ते हुए सागर हैं, और वे इतनी लंबी हैं कि स्टीमर उनमें हफ्तों तक
लगातार चलते रहते हैं। कुमारी मैक्लिऑड जापान में हैं। वे उस देश पर मुग्ध हैं
और मुझसे वहाँ आने को कहा है, लेकिन मेरा स्वास्थ्य इतनी लंबी समुद्र यात्रा
गवारा नहीं कर सकता, अतः मैंने इंकार कर दिया है। इसके पहले मैं जापान देख भी
चुका हूँ।
तो तुम वेनिस का आनंद ले रही हो! यह वृद्ध पुरुष (नगर) अवश्य ही मज़ेदार
होगा-- क्योंकि शाइलॉक केवल वेनिस में ही हो सकता था, है न ?
मुझे अत्यंत खुशी है कि सैम इस वर्ष तुम्हारे साथ ही है। उत्तर के अपने नीरस
अनुभव के बाद यूरोप में उसे आनंद आ रहा होगा। इधर मैंने कोई रोचक मित्र नहीं
बनाया और जिन पुराने मित्रों को तुम जानती हो, वे प्रायः सबके सब मर चुके
हैं--खेतड़ी के राजा भी। उनकी मृत्यु सिकन्दरा में सम्राट अकबर की समाधि के एक
ऊँचे मीनार से गिर पड़ने से हुई। वे अपने खर्चे से आगरे में इस महान प्राचीन
वास्तु-शिल्प के नमूने की मरम्मत करवा रहे थे, कि एक दिन उसका निरीक्षण करते
समय उनका पैर फिसला और वे सैकड़ों फुट नीचे गिर गए। इस प्रकार तुम देखती हो न
कि प्राचीन के प्रति हमारा उत्साह ही कभी-कभी हमारे दुःख का कारण बनता है।
इसलिए मेरी, ध्यान रहे, कहीं तुम अपनी भारतीय प्राचीन वस्तुओं के प्रति
अत्यधिक उत्साहशील न हो जाना!
मिशन के प्रतीक-चिह्न में सर्प रहस्यवाद (योग) का प्रतीक है, सूर्य ज्ञान का,
उद्वेलित सागर कर्म का, कमल भक्ति का, और हंस परमात्मा का, जो इन सबके मध्य
में स्थित है।
सैम और माँ को प्यार कहना।
सस्नेह,
विवेकानन्द
पुनश्च--हर समय शरीर से अस्वस्थ रहने के कारण ही यह छोटा पत्र लिखना पड़ रहा
है।
(भगिनी क्रिश्चिन को लिखित)
प्रिय क्रिश्चिन,
बेलूड़ मठ,
६ जुलाई, १९०१
कभी-कभी किसी कार्य के आवेश से में विवश हो उठता हूँ। आज मैं लिखने के नशे में
मस्त हूँ। इसलिए मैं सबसे पहले तुमको कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ। मेरे स्नायु
दुर्बल हैं--ऐसी मेरी बदनामी है। अत्यंत सामान्य कारण से ही मैं व्याकुल हो
उठता हूँ। किंतु प्रिय क्रिश्चिन, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय में तुम
भी मुझसे कम नहीं हो। हमारे यहाँ के एक कवि ने लिखा है 'हो सकता है कि पर्वत
भी उड़ने लगे, अग्नि में भी शीतलता उत्पन्न हो जाए, किंतु महान व्यक्ति के
हृदय में स्थित महान भाव कभी दूर नहीं होगा।' मैं सामान्य व्यक्ति हैं, अत्यंत
ही सामान्य; किंतु मैं यह जानता हूँ कि तुम महान हो, तुम्हारी महत्ता पर सदा
मेरा विश्वास है। अन्यान्य विषयों में भले ही मुझे चिंतित होना पड़े, किंतु
तुम्हारे बारे में मुझे तनिक भी दुश्चिन्ता नहीं है।
जगज्जननी के चरणों में मैं तुम्हें सौंप चुका हूँ। वे ही तुम्हारी सदा रक्षा
करेंगी एवं मार्ग दिखाती रहेंगी। मैं यह निश्चित रूप से जानता हूँ कि कोई भी
अनिष्ट तुम्हें स्पर्श नहीं कर सकता--किसी प्रकार की विघ्न-बाधाएँ क्षण भर के
लिए भी तुम्हें दबा नहीं सकतीं। इति।
भगवदाश्रित,
विवेकानन्द
.
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
१४ जुलाई, १९०१
प्रिय 'जो',
यह जानकर कि बोया कलकत्ता आ रहे हैं, मैं सतत प्रसन्न हूँ। उन्हें शीघ्र मठ
भेज दो। मैं यहाँ रहूँगा। यदि संभव हुआ, तो मैं उन्हें यहाँ कुछ दिन रखूगा.
और तब उन्हें फिर नेपाल जाने दूँगा।
आपका, विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
बेलड़ मठ,
हावड़ा, बंगाल,
२७ अगस्त, १९०१
प्रिय मेरी,
मैं मनाता हूँ कि मेरा स्वास्थ्य तुम्हारी आशा के अनुरूप हो जाए, कम से कम
इतना अच्छा कि तुम्हें एक लंबा पत्र ही लिख सकूँ। पर यथार्थ यह है कि वह
दिन-प्रतिदिन गिरता ही जा रहा है। इसके अतिरिक्त भी अनेक परेशानियाँ और उलझनें
साथ लगी हैं। मैंने तो अब उन पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है।
स्विट्ज़रलैण्ड के अपने सुंदर काष्ठगृह में सुख-स्वास्थ्य से परिपूर्ण रहो,
यही मेरी कामना है। यदाकदा स्विट्जरलैंड अथवा अन्य स्थानों की प्राचीन वस्तुओं
का हल्का अध्ययन-निरीक्षण करते रहने से चीजों का आनंद थोड़ा और भी बढ़ जाएगा।
मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि तुम पहाड़ों की मुक्त-वायु में साँस ले रही हो। लेकिन
दुःख है कि सैम पूर्णतः स्वस्थ नहीं है। खैर, इसमें कोई चिंता की बात नहीं,
उसकी काठी वैसे ही बड़ी अच्छी है।
'स्त्रियों का चरित्र और पुरुषों का भाग्य, इन्हें स्वयं ईश्वर भी नहीं जानता.
मनुष्य की तो बात ही क्या।' चाहे यह मेरा स्त्रियोचित स्वभाव ही मान लिया जाए,
पर इस क्षण तो मेरे मन में यही आता है कि काश तुम्हारे भीतर पुरुषत्व का थोड़ा
अंश होता। ओह मेरी ! तुम्हारी बुद्धि, स्वास्थ्य, सुंदरता, सब उस एक आवश्यक
तत्त्व के बिना व्यर्थ जा रहे हैं, और वह है--व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा !
तुम्हारा दर्प, तुम्हारी तेजी सब बकवास है, केवल मजाक। अधिक से अधिक तुम एक
बोर्डिंग-स्कूल की छोकरी हो-रीढ़हीन ! बिल्कुल ही रीढ़हीन !
आह ! यह जीवनपर्यंत दूसरों को रास्ता सुझाते रहने का व्यापार ! यह अत्यंत कठोर
है, अत्यंत क्रूर ! पर मैं असहाय हूँ इसके आगे। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,
मेरी, ईमानदारी से, सच्चाई से, मैं तुम्हें प्रिय लगनेवाली बातों से छल नहीं
सकता। न ही यह मेरे वश का रोग है।
फिर मैं एक मरणोन्मुख व्यक्ति हूँ, मेरे पास छल करने के लिए समय नहीं। अतः ऐ
लड़की, जाग ! अब मैं तुमसे ऐसे पत्रों की आशा करता हूँ, जिनमें खड़ी धार जैसी
तेजी हो, उसकी तेजी बनाए रखो, मुझे पर्याप्त रूप से जागृति की आवश्यकता है।
मुझे मैकवीग परिवार के विषय में, जब वे यहाँ थे, कोई समाचार नहीं मिला।
श्रीमती बुल या निवेदिता से कोई सीधा पत्र-व्यवहार न होने पर भी श्रीमती
सेवियर से मुझे बराबर उनके विषय में सूचना मिलती रही है, और अब सुनता हूँ कि
वे सब नार्वे में श्रीमती बुल के अतिथि हैं।
मुझे नहीं मालूम कि निवेदिता भारत कब वापस आएगी, या कभी आएगी भी या नहीं।
एक तरह से मैं एक अवकाशप्राप्त व्यक्ति हूँ; आंदोलन कैसा चल रहा है, इसकी कोई
बहुत जानकारी मैं नहीं रखता। दूसरे आंदोलन का स्वरूप भी बड़ा होता जा रहा है
और एक आदमी के लिए उसके विषय में सूक्ष्मतम जानकारी रखना असंभव है।
खाने-पीने, सोने और शेष समय में शरीर की शुश्रूषा करने के सिवा मैं और कुछ
नहीं करता। विदा मेरी। आशा है इस जीवन में कहीं न कहीं हम तुम अवश्य मिलेंगे।
और न भी मिलें तो भी, तुम्हारे इस भाई का प्यार तो सदा तुम पर रहेगा ही।
विवेकानन्द
(श्री एम० एन० बनर्जी को लिखित)
मठ, बेलूड़, हावड़ा,
२९ अगस्त, १९०१
स्नेहाशीः,
मेरा शरीर क्रमशः स्वस्थ होता जा रहा है, यद्यपि अभी तक मैं अत्यंत ही दुर्बल
हूँ।... . 'शुगर' अथवा 'अलबुमिन' की कोई शिकायत नहीं है, यह देखकर सब कोई चकित
हैं। वर्तमान गड़बड़ी का एकमात्र कारण स्नायु संबधी दुर्बलता है। अस्तु,
धीरे-धीरे मैं ठीक होता जा रहा हूँ।
पूजनीया माता जी ने कृपापूर्वक जो प्रस्ताव किया है, उससे मैं विशेष कृतार्थ
हूँ। किंतु मठ के लोगों का कहना है कि नीलाम्बर बाबू के मकान, यहाँ तक कि
समूचे बेलूड़ गाँव में भी अभी तथा आगामी महीने में 'मलेरिया' छा जाता है। इसके
अलावा किराया भी अत्यधिक है। अतः पूजनीया माता जी यदि आना चाहें, तो मेरी राय
यही है कि कलकत्ते में एक छोटे से मकान की व्यवस्था की जाए। यदि हो सका, तो
मैं भी कलकत्ते में जाकर ही रहूँगा; क्योंकि वर्तमान शारीरिक दुर्बलता में
पुनः मलेरिया का आक्रमण होना क़तई वांछनीय नहीं है। मैंने अभी इस बारे में
सारदानन्द या ब्रह्मानन्द की राय नहीं ली है। वे दोनों ही कलकत्ते में हैं। ये
दो मास कलकत्ता अपेक्षाकृत स्वास्थ्यप्रद है और कम खर्चीला भी है।
मूल बात यह है कि प्रभु उन्हें जैसे चलाएं, वैसे ही चलना उचित है। हमलोग केवल
सलाह दे सकते हैं और वह सलाह भी एकदम निरर्थक ही है। यदि रहने के लिए उन्हें
नीलाम्बर बाबू का मकान ही पसंद हो, तो किराया आदि पहले से ही ठीक कर रखना।
माता जी की इच्छा पूर्ण हो--मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ।
मेरा हार्दिक स्नेह तथा शुभकामना जानना।
सदा प्रभुचरणाश्रित,
विवेकानन्द
(श्री एम० एन० बनर्जी को लिखित)
मठ, बेलूड, हावड़ा,
७ सितंबर, १९०१
स्नेहाशी:,
ब्रह्मानन्द तथा अन्यान्य सभी की राय जानना आवश्यक प्रतीक होने के कारण एवं उन
लोगों के कलकत्ते में रहने के कारण तुम्हारे अंतिम पत्र के जवाब देने में देरी
हुई।
पूरे एक वर्ष के लिए मकान लेने का विषय सोच-समझकर निश्चित करना होगा। इधर जैसे
इस महीने बेलूड़ में 'मलेरिया' होने का डर है, उसी प्रकार कलकत्ते में भी
'प्लेग' का भय है। फिर भी यदि कोई गाँव के भीतरी भाग में न जाने के प्रति सचेत
रहे, तो वह 'मलेरिया' से बच सकता है। क्योंकि नदी के किनारे पर 'मलेरिया'
बिल्कुल नहीं है। अभी तक नदी के किनारे पर 'प्लेग' नहीं फैला है; और 'प्लेग'
के आक्रमण के समय इस गाँव में उपलब्ध सभी स्थान मारवाड़ियों से भर जाते हैं।
इसके अतिरिक्त अधिक से अधिक तुम कितना किराया दे सकते हो, उसका उल्लेख करना
आवश्यक है; तब कहीं हम तदनुसार मकान की तलाश कर सकते हैं। और दूसरा उपाय यह है
कि कलकत्ते का मकान ले लिया जाए।
मैं स्वयं ही मानो कलकत्ते में विदेशी बन चुका हूँ। किंतु और लोग तुम्हारी
पसंद के अनुसार मकान की तलाश कर देंगे। जितना शीघ्र हो सके निम्नलिखित दोनों
विषयों में तुम्हारा विचार ज्ञात होते ही हम लोग तुम्हारे लिए मकान तलाश कर
देंगे। (१) पूजनीया माता जी बेलूड़ रहना चाहती हैं अथवा कलकत्ते में ? (२) यदि
कलकत्ता रहना पसंद हो, तो कहाँ तक किराया देना अभीष्ट है एवं किस मुहल्ले में
रहना उनके लिए उपयुवत होगा? तुम्हारा जवाब मिलते ही शीघ्र यह कार्य संपन्न हो
जाएगा।
मेरा हार्दिक स्नेह तथा शुभकामना जानना।
भवदीय,
विवेकानन्द
पुनश्च--हम लोग यहाँ पर कुशलपूर्वक हैं। मोती एक सप्ताह तक कलकत्ते में रहकर
वापस आ चुका है। गत तीन दिनों से यहाँ पर दिन रात वर्षा हो रही है। हमारी दो
गायों के बछड़े हुए हैं।
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
मठ, बेलूड़,
७ सितंबर, १९०१
प्रिय निवेदिता,
हम सभी तात्कालिक आवेश में मग्न रहते हैं--खासकर इस कार्य में हम उसी रूप से
संलग्न हैं। मैं कार्य के आवेश को दबाए रखना चाहता हूँ; किंतु कोई ऐसी घटना घट
जाती है, जिसके फलस्वरूप वह स्वयं ही उछल उठता है; और इसीलिए तुम यह देख रही
हो कि चिंतन, स्मरण, लेखन--और भी न जाने कितना सब किया जा रहा है।
वर्षा के बारे में कहना पड़ेगा कि अब पूरे जोर से आक्रमण शुरू हो गया है,
दिन-रात प्रबल वेग से जल बरस रहा है, जहाँ देखो वहाँ वर्षा ही वर्षा है।
नदियाँ बढ़कर अपने दोनों तटों को प्लावित कर रही हैं, तालाब, सरोवर सभी जल से
परिपूर्ण हो उठे हैं।
वर्षा होने पर मठ के अंदर जो जल रुक जाता है, उसे निकालने के लिए एक गहरी नाली
खोदी जा रही है। इस कार्य में कुछ हाथ बँटाकर अभी अभी मैं लौट रहा हूँ। किसी
किसी स्थल पर कई फुट तक जल भर जाता है। मेरा विशालकाय सारस तथा हंस-हंसिनी सभी
पूर्ण आनंद में विभोर हैं। मेरा पाला हुआ 'कृष्ण सार' मृग मठ से भाग गया था और
उसे ढूंढ़ निकालने में कई दिन तक हम लोगों को बहुत ही परेशानी उठानी पड़ी थी।
एक हंसी दुर्भाग्यवश कल मर गई। प्रायः एक सप्ताह से उसे श्वास लेने में कष्ट
का अनुभव हो रहा था। इन स्थितियों को देखकर हमारे एक वृद्ध रसिक साधु कह रहे
थे, महाशय जी, इस कलिकाल में जब सर्दी तथा वर्षा से हंस को जुकाम हो जाता है,
और मेढक को भी छींक आने लगती है, तो फिर इस युग में जीवित रहना निरर्थक ही है।
.
एक राजहंसी के पंख झड़ रहे थे। उसका कोई प्रतिकार मालूम न होने के कारण एक
पात्र में कुछ जल के साथ थोड़ा सा 'कार्बोलिक एसिड' मिलाकर उसमें कुछ मिनट के
लिए उसे इसलिए छोड़ दिया गया था कि या तो वह पूर्णरूप से स्वस्थ हो उठेगी अथवा
समाप्त हो जाएगी; परंतु वह अब ठीक है।
त्वदीय,
विवेकानन्द
बेलूड़,
८ अक्तूबर, १९०१
प्रिय--
...जीवन-प्रवाह में उत्थान-पतन के अंदर होकर मैं अग्रसर हो रहा हूँ। आज मानो
मैं कुछ नीचे की ओर हूँ।....
भवदीय,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
मठ, पोस्ट-बेलूड़, हावड़ा,
८ नवंबर, १९०१
प्रिय 'जो',
Abatement (कमी) शब्द की व्याख्या के साथ जो पत्र भेजा जा चुका है, वह निश्चय
ही अब तक तुम्हें मिल गया होगा। मैंने न तो स्वयं वह पत्र दी लिखा है और न
'तार' ही भेजा है। मैं उस समय इतना अधिक अस्वस्थ था कि उन दोनों में से किसी
भी कार्य को करना मेरे लिए संभव नहीं था। पूर्वी बंगाल का भ्रमण करके लौटने के
बाद से ही मैं निरंतर बीमार जैसा हूँ। इसके अलावा दृष्टि घट जाने के कारण मेरी
हालत पहले से भी खराब है। इन बातों को मैं लिखना नहीं चाहता; किंतु मैं यह देख
रहा हूँ कि कुछ लोग पूरा विवरण जानना चाहते हैं।
अस्तु, तुम अपने जापानी मित्रों को लेकर आ रही हो--इस समाचार से मुझे खुशी
हुई। मैं अपने सामर्थ्यानुसार उन लोगों का आदर-आतिथ्य करूंगा। उस समय मद्रास
में रहने की मेरी विशेष संभावना है। आगामी सप्ताह में कलकत्ता छोड़ देने का
मेरा विचार है एवं क्रमश: दक्षिण की ओर अग्रसर होना चाहता हूँ।
तुम्हारे जापानी मित्रों के साथ उड़ीसा के मंदिरों को देखना मेरे लिए संभव
होगा या नहीं, यह मैं नहीं जानता हूँ। मैंने म्लेच्छों का भोजन किया है, अतः
वे लोग मुझे मंदिर में जाने देंगे अथवा नहीं--यह मैं नहीं जानता। लॉर्ड कर्जन
को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था।
अस्तु, फिर भी तुम्हारे मित्रों के लिए जहाँ तक मुझसे सहायता हो सकती है, मैं
करने को सदैव प्रस्तुत हूँ। कुमारी मूलर कलकत्ते में हैं, यद्यपि वे हम लोगों
से नहीं मिली हैं।
सतत स्नेहशील त्वदीय,
विवेकानन्द
(स्वामी स्वरूपानन्द को लिखित)
गोपाल लाल विला,
वाराणसी छावनी,
९ फरवरी, १९०२
प्रिय स्वरूप,
...चारु के पत्र के उत्तर में उससे कहना कि ब्रह्मसूत्र का वह स्वयं अध्ययन
करे। उसका यह कहने से क्या अभिप्राय है कि ब्रह्मसूत्रों में बौद्ध मत का
संकेत है ? निश्चय ही उसका मतलव भाष्य से होगा--होना चाहिए, और शंकराचार्य
केवल अंतिम भाष्यकार थे; हाँ, बौद्ध साहित्य में भी वेदांत का कहीं कहीं
उल्लेख है और बौद्धों का महायान मत अद्वैतवादी भी है। अमरसिंह नाम के एक बौद्ध
ने बुद्ध के नामों में अद्वयवादी का नाम क्यों दिया था? चारु लिखता है कि
ब्रह्म शब्द उपनिषद् में नहीं आता है ! वाह !!
बौद्ध धर्म के दोनों मतों में मैं महायान को अधिक प्राचीन मानता हूँ। माया का
सिद्धांत ऋक् संहिता के समान प्राचीन है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में 'माया' शब्द
का प्रयोग है, जो प्रकृति से विकसित हुआ है। इस उपनिषद् को कम से कम मैं बौद्ध
धर्म से प्राचीन मानता हूँ।
बौद्ध धर्म के विषय में मुझे कुछ दिनों से बहुत सा ज्ञान हुआ है। मैं इसका
प्रमाण देने को तैयार हूँ कि--
(१) शिव-उपासना अनेक रूपों में बौद्धमत से पहले स्थापित थी, और बौद्धों ने
शैवों के तीर्थस्थानों को लेने का प्रयत्न किया, परंतु असफल होने पर उन्होंने
उन्हींके निकट नए स्थान बनाए, जैसे कि बोधगया और सारनाथ में पाए जाते हैं।
(२) अग्निपुराण में गयासुर की कथा का बुद्ध से संबंध नहीं है--जैसा कि डा.
राजेन्द्रलाल मानते हैं--परंतु उसका संबंध केवल पहले से ही वर्तमान एक कथा से
है।
(३) बुद्ध देव गयाशीर्ष पर्वत पर रहने गए, इससे यह प्रमाण मिलता है कि वह
स्थान पहले से ही था।
(४) गया पहले से ही पूर्वजों की उपासना का स्थान बन चुका था, और बौद्धों ने
अपनी चरण-चिह्न उपासना में हिंदुओं का अनुकरण किया है।
(५) प्राचीन से प्राचीन पुस्तकें भी यह प्रमाणित करती हैं कि वाराणसी शिव-पूजा
का बड़ा स्थान था, आदि- आदि।
बोधगया से और बौद्ध साहित्य से मैंने बहुत सी नयी बातें जानी हैं। चारु से
कहना कि वह स्वयं पढ़े तथा मूर्खतापूर्ण मतों से प्रभावित न हो।
मैं यहाँ, वाराणसी में अच्छा हूँ और यदि मेरा इसी प्रकार स्वास्थ्य सुधरता
जाएगा, तो मुझे बड़ा लाभ होगा।
बौद्ध धर्म और नव-हिंदू धर्म के संबंध के विषय में मेरे विचारों में क्रान्ति
कारी परिवर्तन हुआ है। उन विचारों को निश्चित रूप देने के लिए कदाचित मैं
जीवित न रहूँ, परंतु उसकी कार्यप्रणाली का संकेत मैं छोड़ जाऊँगा और तुम्हें
तथा तुम्हारे भ्रातृगणों को उस पर काम करना होगा।
आशीर्वाद और प्रेमपूर्वक तुम्हारा,
विवेकानन्द
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
गोपाल लाल विला,
वाराणसी छावनी,
१० फरवरी, १९०२
प्रिय श्रीमती बुल,
आपका और पुत्री का एक बार पुन: भारतभूमि पर स्वागत है। मद्रास जर्नल की एक
प्रति जो मुझे 'जो' की कृपा से प्राप्त हुई, उससे मैं अत्यंत हर्षित हूँ। जो
स्वागत निवेदिता का मद्रास में हुआ, वह निवेदिता और मद्रास दोनों ही के लिए
हितकर था। उसका भाषण निश्चय ही बड़ा सुंदर रहा।
मैं आशा करता हूँ कि आप और निवेदिता भी इतनी लंबी यात्रा के पश्चात् पूरी तरह
विश्राम कर रही होंगी। मेरी बड़ी इच्छा है कि आप कुछ घंटों के लिए पश्चिमी
कलकत्ता के कुछ गाँवों में जाए और वहाँ लकड़ी, बाँस, बेंत, अभ्रक तथा घास-फूस
आदि से निर्मित पुराने किस्म के बंगाली मकानों को देखें। वास्तव में ये ही
'बंगला' कहलाए जाने के अधिकारी हैं, जो अत्यंत कलापूर्ण होते हैं। किंतु आह !
आजकल तो यह नाम, 'बंगला' हर किसी गंदे-संदे घृणित मकान को देकर उस नाम का मजाक
बना दिया गया है। पुराने जमाने में जो कोई भी महल बनवाता, तो अतिथि सत्कार के
लिए इस प्रकार का एक 'बंगला' अवश्य बनवाता था। इसकी निर्माण-कला अब विनष्ट
होती जा रही है। काश मैं निवेदिता की सारी पाठशाला ही इस शैली में बनवा सकता!
फिर भी इस तरह के जो दो-एक नमूने शेष बचे हैं, उन्हें देखकर सुख होता है।
ब्रह्मानन्द सब प्रबंध कर देगा, आपको केवल कुछ घंटों की यात्रा भर करनी रहेगी।
श्री ओकाकुरा अपने अल्पकालीन दौरे पर निकल पड़े हैं। वे आगरा, ग्वालियर,
अजंता, एलोरा, चित्तौड़, उदयपुर, जयपुर और दिल्ली आदि जगहें जाना चाहते हैं।
बनारस का एक अत्यंत सुशिक्षित धनाढ्य युवक, जिसके पिता से हमारी पुरानी
मित्रता थी, कल इस नगर में वापस आ गए हैं। उनकी कला में विशेष रुचि है और
नष्टप्राय भारतीय कला के पुनरुत्थान के सदुद्देश्य से बहुत सा धन व्यय कर रहे
हैं। वे श्री ओकाकुरा के जाने के पश्चात् ही मुझसे मिलने आए। भारत की कला जो
कुछ भी शेष रह गई है, उसका श्री ओकाकुरा को दर्शन कराने के लिए ये ही उपयुक्त
व्यक्ति हैं, और मुझे विश्वास है, इनके सुझावों से श्री ओकाकुरा लाभान्वित
होंगे। अभी ही श्री ओकाकुरा ने टेराकोटा की एक सुराही यहाँ से प्राप्त की है,
जिसे नौकर इस्तेमाल कर रहे थे। उसकी गठन और उसकी मुद्रांकित डिजाइन पर वे
मुग्ध रह गए। किंतु चूंकि वह सुराही मिट्टी की थी और यात्रा में उसके टूट जाने
का भय था, अतः उन्होंने मुझसे उसे पीतल में ढलवा लेने को कहा। मैं तो
किंकर्तव्यविमूढ़ सा था कि क्या करूँ! कुछ घंटे बाद तभी यह युवक आए और न केवल
उन्होंने इस कार्य के करने का जिम्मा ले लिया, वरन् मुझे ऐसे सैकड़ों
मुद्रांकित टेराकोटा भी दिखाये, जो श्री ओकाकुरावाले से असंख्य गुना श्रेष्ठ
हैं।
उन्होंने उस अदभुत प्राचीन शैली के पुराने चित्रों को सिखाने का भी प्रस्ताव
रखा। वाराणसी में केवल एक परिवार ऐसा बचा है, जो अब भी उस प्राचीन शैली में
चित्र बना सकता है। उनमें से एक ने तो मटर के एक दाने पर आखेट का संपूर्ण
दृश्य ही चित्रित कर डाला है, जो बारीक़ी और क्रियांकन में पूर्णतः निर्दोष
है। मुझे आशा है कि लौटते समय ओकाकुरा इस नगर में आएंगे और इन भद्रपुरुष के
अतिथि बनकर भारत के कलावशेषों का दर्शन करेंगे।
निरंजन भी श्री ओकाकुरा के साथ गया है और एक जापानी होने से किसी मंदिर में
आने-जाने से उसे कोई मना नहीं करता। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे तिब्बती और
दूसरे उत्तर प्रांतीय बौद्ध शिव की उपासना के लिए यहाँ बराबर आते रहे हैं।
यहाँ वालों ने उसे शिवलिंग का स्पर्श करने तथा पूजा आदि करने की अनुमति दे दी
थी। श्रीमती एनी बेसेंट ने भी ऐसी ही चेष्टा एक बार की थी, पर बेचारी ! उन्हें
मंदिर के प्रांगण तक में प्रवेश नहीं करने दिया गया, यद्यपि उन्होंने जूते
उतार दिए थे और साड़ी पहनकर पुरोहितों के चरणों की धूलि भी माथे लगा चुकी थीं।
बौद्ध हमारे यहाँ के किसी भी बड़े मंदिर में अहिंदू नहीं समझे जाते।
मेरा कार्यक्रम कोई निश्चित नहीं है, मैं बहुत शीत्र ही यह स्थान बदल सकता
हूँ।
शिवानन्द और लड़के आप सबको अपना स्नेह-आदर प्रेषित करते हैं।
चिरस्नेहाबद्ध
विवेकानन्द
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
गोपाल लाल विला,
वाराणसी छावनी,
१२ फरवरी, १९०२
कल्याणीय,
तुम्हारे पत्र से सविशेष समाचार जानकर खुशी हुई। निवेदिता के स्कुल के बारे
में मुझे जो कुछ कहना था, मैंने उनको लिख दिया है। इतना ही कहना है कि उनकी
दृष्टि में जो अच्छा प्रतीत हो, तदनुसार वे कार्य करें।
और किसी विषय में मेरी राय न पूछना। उससे मेरा दिमाग खराव हो जाता है। तुम
मेरे लिए केवल यह कार्य कर देना--बस, इतना ही। रुपये भेज देना; क्योंकि इस समय
मेरे समीप दो-चार रुपये ही शेष हैं।
कन्हाई मधुकरी के सहारे जीवित है, घाट पर जप-तप करता रहता है तथा रात में यहाँ
आकर सोता है; नैदा गरीब आदमियों का कार्य करता है; रात में आकर सोता है। चाचा
[8]
(Okakura) तथा निरंजन आ गए हैं। आज उनका पत्र मिलने की संभावना है।
प्रभु के निर्देशानुसार कार्य करते रहना। दूसरों के अभिमत जानने के लिए भटकने
की क्या आवश्यकता है ? सबसे मेरा स्नेह कहना तथा बच्चों से भी। इति।
सस्नेह त्वदीय,
विवेकानन्द
(भगिनी निवेदिता को लिखित)
वाराणसी,
१२ फरवरी, १९०२
प्रिय निवेदिता,
सब प्रकार की शक्तियाँ तुममें उबुद्ध हों, महामाया स्वय तुम्हारे हृदय तथा
भुजाओं में अधिष्ठित हों! अप्रतिहत महाशक्ति तुम्हारे अंदर जाग्रत हो तथा यदि
संभव हो, तो इसके साथ ही साथ तुम शांति भी प्राप्त करो यही मेरी प्रार्थना
है।...
यदि श्री रामकृष्ण देव सत्य हों, तो उन्होंने जिस प्रकार मेरे जीवन में मार्ग
प्रदर्शन किया है, ठीक उसी प्रकार अथवा उससे भी हज़ार गुना स्पष्ट रूप से
तुम्हें भी वे मार्ग दिखाकर अग्रसर करते रहें।
विवेकानन्द
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
गोपाल लाल विला,
वाराणसी छावनी,
१८ फरवरी, १९०२
अभिन्नहृदय,
रुपये प्राप्ति के समाचार के साथ कल मैंने जो तुमको पत्र लिखा है, अब तक वह
निश्चय ही तुमको मिल गया होगा। आज यह पत्र लिखने का मुख्य कारण है कि इस पत्र
के देखते ही तुम उनसे मिल आना।...तदनंतर क्या बीमारी है, कफ आदि किस प्रकार का
है, यह देखना है; किसी अत्यंत सुयोग्य चिकित्सक के द्वारा रोग का अच्छी तरह से
निदान करा लेना। राम बाबू की बड़ी लड़की विष्णु मोहिनी कहाँ है ?--वह हाल ही
में विधवा हुई है। ...
रोग से चिंता कहीं अधिक है। दस-बीस रुपये जो कुछ आवश्यक हो दे देना। यदि इस
संसाररूपी नरककुंड में एक दिन के लिए भी किसी व्यक्ति के चित्त में थोड़ा सा
आनंद एवं शांति प्रदान की जा सके, तो उतना ही सत्य है, आजन्म मैं तो यही देख
रहा हूँ--बाकी सब कुछ व्यर्थ की कल्पनाएँ हैं।
अत्यंत शीघ्र इस पत्र का जवाब देना। चाचा (Okakura या अक्रूर चाचा) तथा निरंजन
ने ग्वालियर से पत्र लिखा है।...अब यहाँ पर दिनों दिन गर्मी बढ़ रही है।
बोधगया से यहाँ पर ठंड अधिक थी।...निवेदिता के श्री सरस्वती पूजन संबधी धूमधाम
के समाचार से बहुत ही खुशी हुई। शीघ्र ही वह स्कूल खोलने की व्यवस्था
करे।...जिससे सब कोई पाठ, पूजन तथा अध्ययन कर सके, इसका प्रयास करना। तुम लोग
मेरा स्नेह ग्रहण करना।
सस्नेह,
विवेकानन्द
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
गोपाल लाल विला,
वाराणसी छावनी,
२१ फरवरी, १९०२
प्रिय राखाल,
अभी अभी मुझे तुम्हारा एक पत्र मिला। अगर माँ और दादी यहाँ आने को इच्छुक हैं,
तो उन्हें भेज दो। जब कलकत्ते में ताऊन फैला हुआ है, तो वहाँ से दूर रहना ही
अच्छा है। इलाहाबाद में भी व्यापक रूप से ताऊन का प्रकोप है; नहीं जानता कि इस
बार वाराणसी में भी फैलेगा या नहीं ...
मेरी ओर से श्रीमती बुल से कहो कि एलोरा तथा अन्य स्थानों का भ्रमण करने के
लिए एक कठिन यात्रा करनी होती है, जब कि इस समय मौसम बहुत गर्म हो गया है।
उनका शरीर इतना क्लांत है कि इस समय यात्रा करना उनके लिए उचित नहीं। कई दिन
हुए मुझे 'चाचा' का एक पत्र मिला था। उनकी अंतिम सूचना के अनुसार वे अजंता गए
हुए थे। महन्त ने भी उत्तर नहीं दिया, शायद वे राजा प्यारीमोहन को पत्रोत्तर
देते समय मुझे लिखेंगे।...
नेपाल के मंत्री के मामले के बारे में मुझे विस्तार से लिखो। श्रीमती बुल,
कुमारी मैक्लिऑड तथा अन्य लोगों से मेरा विशेष प्यार तथा आशीर्वाद कहना।
तुम्हें, बाबूराम और अन्य लोगों को मेरा प्यार तथा आशीर्वाद। क्या गोपाल दादा
को पत्र मिल गया ? कृपया उनकी बकरी की थोड़ी देखभाल करते रहना।
सस्नेह,
विवेकानन्द
पुनश्च--यहाँ के सब लड़के तुम्हें अभिवादन करते हैं।
(स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)
गोपाल लाल विला,
वाराणसी छावनी,
२४ फरवरी, १९०२
प्रिय राखाल,
आज प्रातःकाल तुम्हारा भेजा अमेरिका से आया हुआ एक छोटा सा पार्सल मिला। पर
मुझे न कोई पत्र मिला, न तो वह रजिस्ट्री ही, जिसकी तुमने चर्चा की है और न ही
कोई दूसरी। वे नेपाली सज्जन आए थे अथवा नहीं या क्या कुछ घटित हुआ, यह मैं
बिल्कुल भी नहीं जान सका हूँ। एक मामूली सी चिट्ठी लिखने में इतना कष्ट और
विलंब ! . . . अब मुझे यदि हिसाब-किताब भी मिल जाए, तो मैं चैन की साँस लूँगा।
पर कौन जानता है, उसके मिलने में भी कितने महीने लगते हैं ! ...
सस्नेह,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
.
मठ,
२१ अप्रैल, १९०२
प्रिय 'जो',
ऐसा लगता है जैसे मेरे जापान जाने की योजना निष्फल हो गई है। श्रीमती बुल जा
चुकी हैं, और तुम जा रही हो। मैं जापानी सज्जन से पर्याप्त रूप से परिचित नहीं
हूँ।
सारदानंद जापानी सज्जन और कन्हाई के साथ नेपाल गया है। क्रिश्चिन शीघ्र नहीं
जा सकीं, क्योंकि मार्गट इस महीने के अंत से पूर्व नहीं जा सकती थीं।
मैं भली भाँति हूँ-ऐसा ही लोग कहते हैं, पर अभी बहुत दुर्बल हूँ और पानी पीने
की मनाही है। खैर रासायनिक विश्लेषण के अनुसार तो काफी सुधार परिलक्षित हुआ
है। पैरों की सूजन और अन्य शिकायतें सब दूर हो गई हैं।
श्रीमती बेटी तथा श्री लेगेट, अल्बर्टा और हॉली को मेरा अनंत प्यार कहना शिशु
हॉली को तो जन्म-पूर्व से ही मेरा आशीर्वाद प्राप्त है और वह सदा मिलता भी
रहेगा।
तुम्हें मायावती कैसा लगी? उसके बारे में मुझे लिखना।
चिर स्नेहाबद्ध,
विवेकानन्द
(कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित)
मठ,
बेलूड़, हावड़ा,
१५ मई, १९०२
प्रिय 'जो',
मादाम कालभे के नाम लिखित पत्र मैं तुम्हें भेज रहा हूँ।...
मैं बहुत कुछ स्वस्थ हूँ; किंतु जितनी मुझे आशा थी उस दृष्टि से यह नहीं के
बराबर है। एकांत में रहने की मेरी प्रबल भावना उत्पन्न हो गई है--मैं सदा के
लिए विश्राम लेना चाहता हूँ, मेरे लिए और कोई कार्य शेष न रहेगा। यदि संभव हो
सका, तो मैं अपनी पुरानी भिक्षावृत्ति को पुनः प्रारंभ कर दूँगा।
'जो', तुम्हारा सर्वांगीण मंगल हो--तुम देवदूत की तरह मेरी देखभाल कर रही हो।
चिर स्नेहाबद्ध,
विवेकानन्द
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
बेलूड़ मठ,
१४ जून, १९०२
प्रिय धीरा माता,
... . मेरे विचार से पूर्ण ब्रह्मचर्य के आदर्श को प्राप्त करने के लिए किसी
भी जाति को मातृत्व के प्रति परम आदर की धारणा दृढ़ करनी चाहिए; और वह विवाह
को अछेद्य एवं पवित्र धर्म-संस्कार मानने से हो सकती है। रोमन कैथोलिक ईसाई और
हिंदू विवाह को अछेद्य और पवित्र धर्मसंस्कार मानते हैं, इसलिए दोनों जातियों
ने परमशक्तिमान महान ब्रह्मचारी पुरुषों और स्त्रियों को उत्पन्न किया है।
अरबों के लिए विवाह एक इकरारनामा है या बल से ग्रहण की हुई सम्पत्ति, जिसका
अपनी इच्छा से अंत किया जा सकता है, इसलिए उनमें ब्रह्मचर्य भाव का विकास नहीं
हुआ है। जिन जातियों में अभी तक विवाह का विकास नहीं हुआ था, उनमें आधुनिक
बौद्ध धर्म का प्रचार होने के कारण उन्होंने संन्यास को एक उपहास बना डाला है।
इसलिए जापान में जब तक विवाह के पवित्र और महान आदर्श का निर्माण न होगा,
(परस्पर प्रेम और आकर्षण को छोड़कर) तब तक, मेरी समझ में नहीं आता कि वहाँ
बड़े बड़े संन्यासी और संन्यासिनियाँ कैसे हो सकते हैं। जैसा कि आप अब समझने
लगी हैं कि जीवन का गौरव ब्रह्मचर्य है, उसी तरह जनता के लिए इस बड़े
धर्म-संस्कार की आवश्यकता--जिससे कुछ शक्तिसंपन्न आजीवन ब्रह्मचारियों की
उत्पत्ति हो--मेरी भी समझ में आने लगी है।
मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ, परंतु शरीर दुर्बल है. . . 'जो मेरी जिस
मनोकामना से पूजा करता है, मैं उसको उसी रूप में मिलता हूँ।'
[9]
...
विवेकानन्द
[1]
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ गीता।।१८।६६।।
[2]
क्रिमिया की लड़ाई में थोड़े से अस्त्र-शस्त्र से सज्जित ६००
घुड़सवारों की एक सेना को भूल से यह आदेश प्राप्त हुआ कि प्रबल
शत्रुदल पर आक्रमण करना होगा। सभी को यह ज्ञात था कि इस आक्रमण का फल
निश्चित रूप से मृत्यु को वरण करना ही है। फिर भी गोलियों को परवाह न
कर वे अग्रसर हए एवं कुछ योद्धाओं को छोड़कर बाकी सभी ने अपना प्राण
देकर इस आदर्श को चिरस्थायी बनाया कि कर्तव्य के आह्वान पर योद्धा कभी
पीछे हटनेवाले नहीं हैं।
[3]
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तँ ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वं शरणमहं प्रपद्ये ॥
--श्वेताश्वतरोपनिषद्।.६॥१८॥
[4]
'तन्नो हंसः प्रचोदयात्'-रामकृष्ण मठ तथा मिशन के 'प्रतीक' को
व्याख्या में यह वाक्य लिखा गया है।
[5]
एका भार्या प्रकृतिमुखरा चंचला च द्वितीया
पुत्रोऽप्येको भुवनविजयी मन्मथो दुनिवारः।
शेषःशय्या वसतिरुदधौ वाहनं पन्नगारिः
स्मारं स्मारं स्वगृहचरितं दारुभूतो मुरारिः॥
८-२३
[6]
२६ मई, १८९० ई० को श्री प्रमदादास मित्र महोदय के लिए लिखित पत्र को
देखिए।
[7]
ये दोनों पत्र मूल फ्रेंच के अंग्रेजी अनुवाद से अनूदित हैं।
[8]
ओकाकुरा (Okakura) को प्रेमपूर्वक ऐसा संबोधित किया गया है। 'कुरा'
शब्द का उच्चारण बंगला खुड़ा' (अर्थात् चाचा) के निकट है, इसीलिए
स्वामी जी मजाक में उनको चाचा कहते थे।
[9]
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥ गीता ॥४॥११॥